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Sacchin Kamal

Abstract

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Sacchin Kamal

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ऐ पगडंडियों

ऐ पगडंडियों

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ऐ पगडंडियों,

क्या तुम रुकती नहीं?

सदा चलते रहना, 

क्या तुम थकती नहीं?


कुछ जानी पहचानी लगती हो,

कुछ नई पुरानी लगती हो,

अरे! तो तुम अल्हड़ भी हो,

पर कुछ सयानी लगती हो।


मेरे घर को जाती दिखती हो,

घर से हाट जाती भी लगती हो,

क्या तुम घाट को भी जाती हो,

या मुड़ सैराट को ही जाती हो?


क्या तुम्हें भूख लगती नहीं?

क्या तुम्हें धूप तपती नहीं?

क्या मईया भी चिंतित नहीं,

या डाँट तुम्हें पड़ती नहीं?


क्या हो अगर मैं तुम्हें उजाड़ दूँ?

तुम्हें काट दूँ या बिगाड़ दूँ,

क्या खाने हैं काँटे तुम्हें,

या ठोकर ही कोई मार दूँ?


क्या पाँव तले कुचल सा दूँ?

किसी कीड़े सा मसल सा दूँ?

क्या डंडे से कोई करतब करूँ,

या बैल-हल का विचार दूँ?


क्या तुम्हें चोट लगती नहीं?

क्या देह तुम्हारी दुखती नहीं?

कोई भावना भी है कहीं,

या होती हैं पर कहती नहीं?


ठीक है न बोलो सही, 

पर मुझ सी हो कुछ दिख रही,

तुम मेरे साथ अब घर चलो

चलो देखो खीर क्या पक गयी?


हम मिलकर खीर को खाएँगे,

फिर संग खेलने को जाएँगे,

तुम सो लेना मेरी चारपाई पर

अब मान लो तुम थक गई।


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