आँसू, व्यर्थ न बहा
आँसू, व्यर्थ न बहा


भीग जाती है पलकें तन्हाई में
डरते है कोई जान न ले।
पसंद करते है तेज बारिश में चलना
ताकि रोते हुए कोई पहचान न ले।
आसमान भी शायद रोता है हमारे साथ
बारिश भी शायद उसकी आँखों से टपकता,
आँसू हमारे साथ।
पर उसका साहस हममें कहाँ ?
यहाँ तो अकेले में फफक कर रह जाते हैं।
आँसू तो खो गए ज़माने की आग में
झुलसते गए ऐसे, न धुआं बची, न राख।
या फिर सारी दुनिया को दुःख से जलते देख
बारिश आती है उस आग को शीतलता देने।
ये बारिश भी सिर्फ रात में ही क्यों होती है ?
शायद वो भी डरता है कि कोई न कहे
देखो कायर रोता है।
या फिर वो अँधेरे में
दुःख धोने की कोशिश करता है सब का।
जब अँधेरे में कोई न होता साथ,
आँसू धोने को आसमान होता साथ।
शायद कहता उस राह पर पीड़ित से
मनुष्य, इन आंसुओं को यूँ न बहा।
इन मोतियों की कोई कीमत नहीं यहाँ
इनको माला में पिरो कर रख,
यूँ न बिखरा।
कहता है वो, मैंने तेरे आंसू धो दिए,
तू किसी के पोंछ ले ।
किसी का सहारा बन,
सीने में छुपा आँसू किसी के ।
हाथ पकड़ किसी का, उठ,
स्वागत कर नयी सुबह का ।
स्वागत कर नयी बारिश का।