पता कस्तूरी का
पता कस्तूरी का
पूछ रही थी..वह दर-ब-दर..
हर गली चौबारों से..
बातें करती रही.. वह स्वयं से..
गूंथती रही. खुद को खुद से..
बीत गई तमाम उम्र..
रही वह.. बेखबर खुद से..
पूछती थी.. सूनी सूनी गलियारों से..
खिले हुए फूलों के बागों से..
चांदनी होती रातों से..
ठंडी हवा के झोंके जब सहलाने लगते..
मुंह पर छिटकते, थपकते...
पानी के फव्वारों से..
क्या तुमने कभी.. प्यार किया है..
मैंने तो नहीं किया..
लगता था सब.. तंज कस रहें हैं मुझ पर..
बिना प्रेम के.. जिंदगी गुजार दी उम्र भर..
एक हूक सी.. सीने में सुलगती थी..
आखिर.. क्यों नहीं किया प्यार..
क्या कमी थी मुझ में...
क्यों.. कभी होठों से निकली नहीं आह...
क्यों नहीं जागी.. कभी सारी रात..
करवटें बदल बदलकर....
क्यों नहीं थकी कभी...
इंतजार.. किसी का करके..
देखा नहीं कभी.. किसी का सपना..
कोई मेरे सपनों में..कभी आया नहीं..
इंतजार कभी किसी का.. मैनें किया नहीं..
या किसी ने.. मुझसे कभी करवाया नहीं..
खत आयेगा किसी का..
यह प्रतीक्षा कभी रहीं नहीं...
जिंदगी गुजर गई मेरी..
लागे यूँ ही सूनी सूनी..
कह रहीं थीं...क्यों कभी खोई नहीं..
प्रेम तो.. तुमने कभी किया ही नहीं..
जिंदगी भी.. अब हाथ से फिसल रही..
प्रेम की परिभाषा.. कभी समझी नहीं..
छटपटा कर. बदहवास सी..
आईने को.. यूँ ही ताकने लगी..
उम्र के पड़ते निशान.. देख सोचने लगी..
शायद.. मरना पड़ेगा बिना प्यार के ही..
वक्त तो हाथ से मेरे... फिसल गया..
अब लगे नहीं.. कोई दवा या दुआ..
तभी आईना देख मुझे..
जाने क्यों मुस्कुराने लगा..
आज वह भी.. बात मुझसे करने लगा..
भाग रही हो.. किस मृगतृष्णा के पीछे
कदर कभी नहीं रही.. तुम्हें प्यार की..
मिला तुम्हें वह.. कुछ ज्यादा ही..
तरसी नहीं कभी.. किसी के लिए..
क्योंकि प्यार रहा तुम्हारा..
बन सरमाया.. तुम्हारे पास ही...
बस.. तुमने उसे कभी समझा ही नहीं..
सब कहते है कि.. उन्होंने प्यार किया..
पर तुमने तो.. प्यार को ही जी लिया..
पीती रही.. घूंट-घूंट सदा प्यार ही..
और पूछती रही पता.. प्यार का ही..
आईना देख मुझे अवाक..
अट्टहास करने लगा..
सच...सुगंध में बौराये मृग को..
कभी मिलता नहीं.. पता कस्तूरी का...