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'रिक्तता'

'रिक्तता'

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मणिकर्णिका के घाट से खा़क़ उड़ रही है

देखो मरघट की दहलीज़ पर,

भटक रही है पूर्णता को तरसती अधूरी, अकेली

पहचानों है किसकी ?


हाँ बिलकुल सही पहचाना 

थी मैं एक रिक्ता बस यही नाम से पुकारो..!


न मिली मुझे कभी ज़िंदगी से पूर्णता 

होंठों पर दंभ को सजाए जीती रही 

अश्कों को आँखों में छुपाए पीती रही

देखी तो होंगी मेरे जैसी कितनी सारी

रिक्ताएँ जो मर-मर के जीती रही..!


हरी-भरी मांग लिये बेरंगी जीवन को ढ़ोती 

हाहाहा जी बिलकुल होती है मांग सजी विधवाएँ भी..!


कोई आकर भर देता है चुटकी भर कुम-कुम 

और बाँध देता है गुलामी की जंज़ीरों से

दमन जैसे अधिकार हो उसका..!


अग्नि को बेवकूफ बनाकर शपथ लेता है 

खुशियों के नाम पर आँसू देता है

सर का ताज बनकर जूती पे रखता है

पति बनकर आधिपत्य जमाता है..!


एक प्यारे से बंधन को नासूर बना देता है

अंत तक न उपजती है दिल में दया 

जलाकर तन को सूखी लकड़ियों संग 

बहाता है गंगा में अस्थियाँ..!

 

जीते जी समझा होता गंगा सी 

आज खाक़ न उड़ती मेरी यूँ चिल्लाती..!


रिक्त थी ज़िंदगी, सदियों तक रिक्त ही रहेगी भरेगा

न जब तक कोई मांग में चुटकी भर प्यार,

महज़ कुम-कुम की जगह॥


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