समाज की बेड़ियां
समाज की बेड़ियां
नारी तेरा जीवन ही
एक अजब पहेली है।
पिंजरे में कैद जैसे
पंछी की सहेली है।।
छोटे से कस्बे की रहने वाली थी रिचा और शादी हो गई उसकी महानगर में लेकिन रिचा को अपने गांव की आज़ादी बहुत याद आती।कहने को तो उसकी शादी बड़े शहर में हुई लेकिन परंपराएं और विचार वही दकियानूसी....
अपने गांव में तो रिचा को कहीं भी जाने की किसी से भी बात करने की घूमने की फिरने की स्वच्छंद पक्षियों जैसे खुले आसमान के नीचे खेलने कूदने की आज़ादी थी।
पर शादी के बाद तो लगता था जैसे किसी ने उसके पैरों में बेड़ियां डाल दी हो सदैव अकेले में उसका दिल रह-रहकर अपना पुराना जीवन याद करके रो उठता.......
ख्वाहिशें थी उसका भी
हो एक उन्मुक्त गगन।
पर समाज की बेड़ियों ने
जकड़ा है दामन।।
नैनो से बह रही है मन की विकलता
अधरों पर खामोशी नहीं जीवन में सरलता।
वह सदैव सोचती क्या !!!!! शादी इसी बंधन का नाम है अपनी सारी आज़ादी खो देने का
नाम है ....सदैव घूंघट में सबसे पर्दा करते हुए रहना जोर से हँसी आ जाए तो हँस भी ना पाऊं क्या इसी का नाम शादी है।
कितनी सपने देखे थे रिचा ने शादी के बाद यह करूंगी वह करूंगी लेकिन सब कुछ एक लक्ष्मण रेखा के अंदर दायरों में और बंधनों में सिमट कर रह गया
आदि शक्ति दुर्गा है , सृष्टि की रचयिता है।
फिर क्यों नारी जीवन में , एक लक्ष्मण रेखा है।।
एक ओर हम दुनिया से बराबरी वाली की चर्चा करते हैं और दूसरी ओर नारी के लिए इतनी पाबंदियां इतने बंधन कि उसे स्वयं के पैदा होने पर मलाल हो जाए यह कैसी रिवाज है हमारे समाज की...
पता नहीं कब ???
और कहां ??
कैसे??
इन सब में बदलाव आएगा
जब नारी भी पूर्णतया स्वच्छंद आसमान में विचर सकेगी समाज की खोखली परंपराएं उसके ऊपर नहीं थोपी जाएंगी तथा उसे भी अपने सपनों को पंख देने की पूरी आजादी मिलेगी।
और समाज के बंधन रूपी बेड़ियों को तोड़ कर स्वच्छंद हवा में सांस लेकर जी पाएगी ।