मधुशिल्पी Shilpi Saxena

Tragedy

3.3  

मधुशिल्पी Shilpi Saxena

Tragedy

"शिल्पी"

"शिल्पी"

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वाह रे ऊपरवाले गज़ब है तू भी। तेरी लीला भी समझ से परे है। दुनिया में आई तो नाम मिला "शिल्पी" और वाह रे जग के रचयिता तूने तो बखूबी ज़िंदगी का किरदार भी एक

शिल्पकार का ही रच दिया। शुरू से ही जुझारू, कर्मठशील और खुश दिल रहने वाली मैं जिम्मेदारियों को हँसी-खुशी निभाती। बेटा न होने के कारण परिवार के प्रति हर कार्य को आनंदित होकर ही करती। गिरते-सँभलते जीवन के कई चरण पार किए। फिर एक वक्त आया जब पिताजी बूढ़े हो गए। एक दिन अचानक ही बोले बेटा सारे फर्ज बखूबी निभाए हैं तुमने। एक आखिरी जिम्मेदारी सौंपना चाहता हूँ। मैं बोली बेझिझक कहिए पापा। बोले मेरे ना रहने पर मुझे मुखाग्नि तुम ही देना। भरे नैनों से मैंने उनको वचन दे दिया। तभी वो बोले मैं जानता हूँ मेरे ना रहने पर सिर्फ तुम ही हो जो आजीवन मेरी याद में आँसू बहाओगी।

   2004 से 2014 तक साल में मौसम के बदलने पर दो बार पापा को खराब स्वास्थ्य के कारण भर्ती करना पड़ता था। जो डॉक्टर पापा का इलाज कर रहे थे वो अपने साथी डॉक्टर और स्टाफ से कहते नहीं थकते थे कि जितना इसने लड़की होकर अपने पापा का ध्यान रखा और बेहतर से बेहतर इलाज करवाया उतना कोई लड़का नहीं कर सकता।

     आखिरकार जनवरी की वो तारीख भी आ गई जब पापा संसार से विदा हुए। पूरी रात बीतने के बाद पापा को घाट ले जाने की तैयारी शुरू हुई। मैंने उनके लिए विमान बनवाया। क्योंकि सभी जिम्मेदारी उन्होंने अपनी पूरी कर ली और चौरासी बरस की आयु में वो विदा हुए।

     हम तीन बहनों और मेरी बेटी ने मिलकर सबसे पहले उनको कंधा दिया। देखकर ये नज़ारा सभी का दिल भर आया। भारी मन से सभी के साथ हम घाट पर पहुंचे। वहां का नज़ारा ऐसा था जिसमें सभी पुरुष थे और औरतों में सिर्फ मैं ही ज़िंदा थी वहां। उनको मुखाग्नि देकर बाकी के रिवाज पूरे करके हम घर आए। तेरहवीं, बरसी सभी बहुत अच्छे से और सम्मान से निभाई। 

     समझ नहीं आता कैसे पापा ने भाँप लिया कि उनका वक्त आ गया। अपनी इस आखिरी जिम्मेदारी को उन्होंने हमसे पूरा करवाया। क्या वाकई नाम का इतना असर होता है। जो ऊपरवाले ने ऐसा किरदार हमसे निभवाया।


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