पत्थर की लकीर
पत्थर की लकीर
कविता अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। उसकी उम्र पाँच वर्ष थी। वह अपने माता-पिता के साथ बिलासपुर के एक गाँव में रहती थी। विद्यालय उसके गाँव से बहुत दूर था। रिक्सा से वह विद्यालय जाया करती थी। वह कभी पेन्सिल गुम कर आती तो कभी कापी तो कभी किताब,इस बात के लिए कविता प्रति दिन अपनी माँ से डाँठ खाती।
एक रोज कविता की माँ उसके लिए सोने की बाली लाई। अपनी बेटी को बड़े प्यार से सोने की बाली पहनाकर बोली, "कविता तू तो मेरी नन्ही सी प्यारी सी गुड़िया है। इन बालियों का ध्यान रखना खोना नहीं। "
कविता बोली-"माँ अगर गलती से गुम हो जाए तो। "
माँ बोली-"तो तुम भी गुम हो जाना। "
यह बात मानो कविता के लिए पत्थर की लकीर हो गयी। हर रोज की तरह कविता आज भी विद्यालय गयी और बच्चों के साथ खेलते समय उसकी बाली स्कूल के मैदान में गुम हो गयी। वह उसे ढूँढने में लग गयी, उसका रिक्शा वाला चला गया। सर्दियों के दिन थे और बारिश का मौसम हो रहा था। हैरान, परेशान कविता अपने गाँव के रास्ते पर पैदल ही निकल पडी। रिक्सा वाला कविता के घर जाकर बोला-"बहन जी आज आप कविता को स्कूल से ले आए और बताया भी नहीं। "
ऐसा सुनते ही कविता की माँ के पैरों तले जमीन खिसक गई। वह आश्चर्य से बोली मैं, मैं ....तो कविता को नहीं लाई। कहाँ है मेरी बच्ची!यह कहकर वह जोर जोर से रोने लगी। पूछने पर उसने घर परिवार के सदस्यों को सारा वृतांत सुनाया। पूरा परिवार कविता को खोजने लगा। उधर कविता चलते-चलते थक गयी तो राह में एक पेड़ के नीचे बैठ गयी तभी उसे अपनी कक्षा का एक लड़का रोहित मिल गया। कविता को देखकर रोहित बोला ,"कविता तुम यहाँ क्या कर रही हो ?घर नहीं गयीं। "
यह सुन कविता जोर से रोने लगी। रोहित उसको अपने घर ले गया जहाँ वह अपनी दादी के साथ रहता था। रोहित ने सारी बात अपनी दादी को बता दी। उसकी दादी बोली-" बेटा कल सुबह तुझे तेरे घर पहुंचा दूंगी, अभी माँ समझ मेरी गोद में सो जा। थोड़ी देर बाद कविता ने एक आवाज सुनी तो वह बहुत खुश हो गयी और दादी से बोली-"दादी देखो ये मेरे चाचा की आवाज है। वो मुझे ढूंढ रहे हैं। मुझे बाहर ले चलो। "
दादी कविता को बाहर ले गयी तो कविता के चाचा कविता को लेकर घर आ गए। इस प्रकार कविता घर पहुँची और माँ के गले लग जोर जोर से रोने लगी बोली-"माँ मेरे कान की एक बाली गुम हो गई है। मैंने बहुत ढूंढा, नहीं मिली। आप मुझे डाँठोगी तो नहीं?
यह सुन माँ भावुक हो गई और बोली-"मैं तो मज़ाक कर रही थी तूने तो मेरी बात को पत्थर की लकीर मान लिया। मैंने तो यूँ ही कह दिया था कि तू भी खो जाना। "ऐसा कहकर जोर से अपनी कविता को गले लगा लिया। कविता भी माँ से लिपट गयी।
भगवान को शुक्रिया करते हुए माँ बोली हे प्रभु! तेरा शुक्रिया मेरी कविता को मेरे पास पहुँचा दिया। अगर आज कोई अनहोनी हो जाती। मैं कभी अपने को माफ न कर पाती। " इतना कह मंदिर में दीपक जलाती है और बहुत सोच समझकर कर बच्चों के सामने कोई बात कहने का निर्णय लेती है।
