जीवन दर्शन: हास्य का उल्लास या व्यंग्य की चुटकी
जीवन! अहा, क्या शब्द है! सुनते ही मन में एक गहरी सांस उभरती है, जैसे कोई पुराना रेडियो चालू हो गया हो, जिसमें पहले भक्ति भजन बजता है, फिर अचानक भौंडा विज्ञापन शुरू हो जाता है—
‘जीवन ज्योति साबुन, चमकाए आपका भाग्य!’
जीवन को समझना वैसा ही है, जैसे साइकिल के टायर में पंचर ढूंढना—लगता है पास ही है, पर पकड़ में नहीं आता। कभी लगता है जीवन एक तितली है, रंग-बिरंगी, हल्की-फुल्की, फूलों पर मंडराती हुई। और कभी लगता है, अरे, ये तो वह तितली है, जो पकड़ते ही पंखों का रंग उंगलियों पर छोड़ देती है, और खुद न जाने कहां उड़ जाती है।
मैं जब अपने जीवन के बारे में सोचता हूं, तो कभी-कभी लगता है कि ये तो एक सस्ता सा सर्कस है बस ! इस सर्कस में हम सब जोकर हैं ! रंग-बिरंगे कपड़े पहने, चेहरों पर मेकअप चढ़ाए, दर्शकों को हंसाने की कोशिश में लगे हुए !
पर दर्शक? अरे, वो तो खुद सुपर जोकर हैं, बस उनकी बारी अभी आई नहीं ।
जीवन का ये सर्कस बड़ा विचित्र है। एक तरफ हंसी का गुब्बारा उड़ रहा है, दूसरी तरफ उदासी का हाथी सूंड़ लटकाए बैठा है। और बीच में हम, जो न हंस पाते हैं, न रो पाते हैं, बस मूकदर्शक बनकर तालियां बजाते रहते हैं ! क्योंकि शो तो चलना चाहिए! हर हाल में ! हर कीमत पर !
जीवन का पहला दर्शन: बचपन का गुब्बारा
बचपन में जीवन एक गुब्बारे जैसा लगता था। एक सपने जैसा । रंग बिरंगा ! लाल, पीला, नीला— इंद्रधनुष जैसा ! हवा में लटका हुआ। थोड़ा सा धागा ढीला छोड़ो, तो आसमान की सैर कर लेता। पर धागा कस के पकड़ो, वरना उड़ जाए तो ढूंढना मुश्किल।
मेरे पड़ोस के शर्मा जी का बेटा, बबलू, एक बार ऐसा ही एक गुब्बारा लेकर मेले से लौट रहा था। हंसते खिलखिलाते हुए । खुशियों में झूमते हुए । लेकिन अगले ही पल उसके हाथ से गुब्बारा छूटा और गुब्बारा आसमान में इस तरह उड़ गया जैसे रात समाप्त होते ही स्वप्न ! बबलू रोने लगा ।
शर्मा जी ने समझाया, “बेटा, गुब्बारा गया तो क्या हुआ, जीवन तो नहीं चला गया ना ! जीवन में और भी गुब्बारे मिलेंगे, बस थोड़ा सा धैर्य धारण करने की जरूरत है।”
बबलू ने सुबकते हुए कहा, “पापा, मुझे गुब्बारा उड़ने का ग़म नहीं है । गम तो यह है कि मैंने उस पर अपना पांच रुपये का नोट चिपका दिया था !”
बस, यही जीवन है। गुब्बारा तो हमेशा उड़ता रहेग और उस पर चिपके पांच रुपये का नोट जैसे सपने भी । लेकिन उम्मीदें हमेशा जिंदा रहनी चाहिए कीचड़ में खिलते कमल जैसी !
बचपन में जीवन की सादगी ऐसी थी कि लगता था, बस एक लॉलीपॉप मिल जाए, तो सब कुछ हासिल हो गया ! जैसे लॉलीपॉप ही जीवन है । पर बड़े होते-होते लॉलीपॉप की जगह फरमाइशों के पहाड़ खड़े होते चले गए और उनमें कामनाओं के अनंत जंगल बस गए ।
बिजली का बिल, पानी का बिल, नेट का बिल, और सबसे भारी—पत्नी के मूड का बिल ! ये आखिरी वाला बिल ऐसा है, जो कभी चुकता नहीं होता। हर बार लगता है, “बस, अब तो हिसाब बराबर हो गया,” ! पर अगले ही पल खरपतवार की तरह उगती पत्नी की एक और नई फरमाइश ! और उनमें हलाल होता अपना जीवन ।
जीवन का दूसरा दर्शन: पत्नी की उंगली
मेरी पत्नी, जिन्हें मैं प्यार से ‘बिग बॉस’ कहता हूं, क्योंकि वह बॉस से भी सुपर बॉस है ! उनके पास एक जादुई उंगली है। वो उंगली जब भी मेरी ओर उठती है, मैं तुरंत नागपाश में बंधा हुआ सा उनकी ओर ऐसे खिंचा चला आता हूं जैसे इस देश का एक प्रधानमंत्री कभी खिंचा चला आता था किसी की उंगली के इशारे पर ! विवश , असहाय, निशक्त, !
“सुनो, सब्जी लाओ!” “सुनो, बच्चे को ट्यूशन छोड़ आओ!” “सुनो, ये कपड़े प्रेस कर दो!”
सुनो, सुनो, सुनो—ये शब्द मेरे जीवन का राष्ट्रीय गान बन चुके हैं । मैंने एक बार मजाक में कहा, “तुम्हारी उंगली में तो जादू है!” जवाब मिला, “जादू नहीं, प्यार है। अब जाओ, राशन लाओ, आज मेरे भैया - भाभी आने वाले हैं।” और साथ में उसने मुस्कान का ऐसा जाल फेंका कि वह किसी आतंकवादी के बम से भी अधिक खतरनाक साबित हुआ । धड़ाम ! और सब कुछ समाप्त ! बस, यही जीवन है। एक उंगली, और सारी आजादी हवा।
कभी-कभी सोचता हूं, ये उंगली सिर्फ मेरी पत्नी की नहीं, बल्कि जीवन की उंगली है। ये हमें इशारे करती रहती है—कभी नौकरी के लिए, कभी समाज के लिए, कभी बच्चों के लिए। और हम, बेचारे, कठपुतली की तरह नाचते रहते हैं।
याद है, एक बार मैंने अपनी पत्नी से पूछा, “मैं तुम्हारे लिए क्या-क्या करता हूं, कभी गिना है?” वो हंसी, और बोली, “गिनने की जरूरत क्या, तुम तो मेरे लिए सात जन्मों का इंश्योरेंस पॉलिसी हो!”
बस, यही जीवन का दर्शन है—हम सब किसी न किसी के लिए इंश्योरेंस पॉलिसी हैं, जिसमें प्रीमियम भरते रहो, और क्लेम का इंतजार करते रहो।
जीवन का तीसरा दर्शन: छमिया भाभी और चमकता चांद
जब मन उदास होता है, तो मैं छत पर चला जाता हूं। वहां से चमकता चांद नजर आता है, और साथ में हमारी पड़ोसन, मिसेज वर्ल्ड छमिया भाभी। चांद को देखकर लगता है, कितना सुंदर है! दूर से चमकता हुआ, शीतल, शांत। पर पास जाओ, तो गड्ढे ही गड्ढे। ठीक वैसे ही, जैसे छमिया भाभी। दूर से देखो, तो साड़ी में लिपटी हुई, हंसती-खिलखिलाती, जीवन की मिस यूनिवर्स। पर पास जाओ, तो पता चलता है, ये तो वही बॉलीवुड की नायिका हैं, जो रुपहले पर्दे पर "मुमताज महल" दिखती हैं पर होती "टुनटुन" जैसी हैं ।
जीवन भी ऐसा ही है। दूर से देखो, तो सपनों का महल। पास जाओ, तो बिलों, जिम्मेदारियों, और टेंशन का ढेर। चांद की तरह, जीवन भी दूर से चमकता है। पर उसकी सतह पर पहुंचो, तो गड्ढों में गिरने का डर।
मैंने एक बार छमिया भाभी से मजाक में कहा, “भाभी, आप तो चांद सी हैं!” वो मुस्कुराईं, और बोलीं, “हां, पर मेरे गालों के गड्ढों में मत गिर पड़ना ! लोग कहते हैं कि वहां फिसलन बहुत ज्यादा है" बस, यही जीवन है—चमक के पीछे छुपे गड्ढों का खेल।
जीवन का चौथा दर्शन: हास्य और व्यंग्य
जीवन को समझने का सबसे अच्छा तरीका है—हास्य। अगर आप जीवन को गंभीरता से लेंगे, तो ये आपको गंभीर बना देगा। और गंभीर आदमी से ज्यादा बोरिंग चीज इस दुनिया में कोई नहीं। हास्य वो चश्मा है, जिससे जीवन के सारे गड्ढे, सारी उंगलियां, सारे गुब्बारे हल्के लगने लगते हैं। मैं जब भी उदास होता हूं, अपनी पत्नी की वो जादुई उंगली याद करता हूं, और हंस पड़ता हूं। क्योंकि अगर मैं उस उंगली पर न नाचूं, तो शायद वो उंगली मुझे नचाने के लिए झाड़ू में बदल जाए!
जीवन का असली दर्शन यही है—हंसो, क्योंकि रोने से बिल नहीं चुकते। हंसो, क्योंकि चांद के गड्ढे दूर से दिखते नहीं। हंसो, क्योंकि पत्नी की उंगली का जादू सिर्फ हंसी से ही टाला जा सकता है। और अगर हंसी न आए, तो अपने घर की छत पर चले जाओ। वहां से चांद और पड़ोसन दोनों दिखाई देंगे । बस, उन्हें दूर से देख देखकर खुश होते रहिए ! यही जीवन दर्शन है ।
श्री हरि
31.7.2025