एडवेन्चर
एडवेन्चर
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
पिछले शनिवार और इतवार को मैं दीम्का के घर गया था. मेरे अंकल मीशा और आण्टी गाल्या का बेटा दीम्का, इतना प्यारा है. वो लोग लेनिनग्राद (पेरेस्त्रोयका के बाद – पीटरबुर्ग – अनु.) में रहते हैं. जब मेरे पास समय होगा तो मैं ये भी बताऊँगा कि मैं और दीम्का इस ख़ूबसूरत शहर में कितना घूमे और हमने वहाँ क्या क्या देखा. ये बेहद दिलचस्प और मज़ेदार किस्सा है.
मगर अभी तो मैं आपको सीधा सादा किस्सा सुनाने जा रहा हूँ, कि कैसे मुझे मम्मा के पास मॉस्को फ्लाइट से आना पड़ा. ये भी मज़ेदार है, क्योंकि ये एक एड़वेन्चर था.
वैसे तो मैं हवाई जहाज़ से सफ़र कर चुका हूँ, मगर अकेले, बिना किसी की सहायता के, एक भी बार नहीं गया! अंकल मीशा मुझे हवाई जहाज़ में बिठा देने वाले थे. मैं सही-सलामत मॉस्को पहुंच जाऊँगा, और हवाई अड्डे पर मम्मा और पापा मुझे लेने आने वाले थे. हमने इतनी सीधी सादी और बढ़िया प्लानिंग की थी.
मगर शाम को, जब मैं अंकल मीशा के साथ लेनिनग्राद एअरपोर्ट पहुँचा, तो पता चला कि कहीं कुछ फ्लाइट्स में देरी हो गई थी, और इसके कारण मॉस्को की फ्लाइट्स न पकड़ सकने वाले काफ़ी सारे लोग एअरपोर्ट पर इकट्ठे हो गए थे, और एक ऊँचा, तगड़ा अंकल हमें समझा रहा था कि परिस्थिति ऐसी है: मॉस्को जाने वाले लोग काफ़ी हैं, और हवाई जहाज़ है सिर्फ एक, और इसलिए, जो इस हवाई जहाज़ में घुस जाएगा, वही मॉस्को जा पाएगा. मैंने क़सम खाई कि इसी जहाज़ में घुसूंगा: क्योंकि मॉस्को में मेरे पापा जो आने वाले हैं एअरपोर्ट पे.
ये “ख़ुशख़बर” सुनकर अंकल मीशा ने मुझसे कहा:
“जैसे ही हवाई जहाज़ में बैठेगा, मेरी ओर देखकर हाथ हिला देना, तब मैं फ़ौरन टेलिफ़ोन की ओर भागूँगा, तुम्हारे पापा को फोन कर दूँगा, कि तुम यहाँ से उड़ चुके हो, वो जागेंगे, कपड़े पहनेंगे और एअरपोर्ट पर तुझे लेने आ जाएँगे. समझ गया?”
मैंने कहा:
“सब समझ गया!”
और मैं अंकल मीशा के बारे में सोचने लगा : ‘कितने भले और सज्जन हैं अंकल मीशा. कोई और होता तो बस मुझे पहुँचा देता, और बस! मगर ये मेरे मम्मा पापा को फ़ोन भी करने वाले हैं. और मैं रिले-रेस के बेटन की तरह रहूँगा. अंकल फ़ोन करेंगे और पापा मुझे लेने आ जाएँगे, और मैं उनके बिना हवाई जहाज़ में सिर्फ एक घण्टा रहूँगा, और वहाँ भी, मतलब, हवाई जहाज़ में, सब अपने ही हैं. डरने की कोई बात नहीं है!’
मैंने ज़ोर से कहा:
“आप गुस्सा न करना कि मेरे कारण बस परेशानी ही होती है, मैं जल्दी ही हवाई जहाज़ में अकेले, अपने आप सफ़र करना सीख लूँगा, और आपको इतनी तकलीफ़ नहीं दूँग़ा...”
“ये आप क्या कह रहे हैं, डियर सर! मैं बहुत ख़ुश हूँ! दीम्का भी तुझसे मिलकर बेहद ख़ुश था! और गाल्या आण्टी! चल, ये पकड़!” उन्होंने मेरी ओर टिकट बढ़ाया और चुप हो गए. मैं भी चुप हो गया.
और, तभी अचानक हवाई जहाज़ में ‘बोर्डिंग’ शुरू हो गई. ये तो भगदड़ ही हो रही थी. सब लोग हवाई जहाज़ की ओर लपके, और सबसे आगे भाग रहा था मैं, मेरे पीछे थे बाकी लोग.
मैं सीढ़ी तक पहुँचा, वहाँ ऊपर दो लड़कियाँ खड़ी थीं. बेहद ख़ूबसूरत. मैं भागते हुए उन तक पहुँचा और अपना टिकट बढ़ा दिया. उन्होंने मुझसे पूछा:
“क्या तू अकेला है?”
मैंने उन्हें सारी बात बताई और प्लेन के अन्दर गया. मैं खिड़की पास बैठ गया और बिदा करने वालों की भीड़ को देखने लगा. अंकल मीशा पास ही में थे, मैं उनकी तरफ़ देखकर हाथ हिलाने लगा, और मुस्कुराने लगा. उन्होंने इस मुस्कुराहट को पकड़ लिया, मुझे सैल्यूट किया और फ़ौरन पलटकर टेलिफ़ोन की तरफ़ बढ़े, जिससे मेरे पापा को फ़ोन कर सकें. मैंने साँस छोड़ी और इधर उधर देखने लगा. लोग बहुत ज़्यादा थे, और सभी जल्दी-जल्दी बैठने की और उड़ने की कोशिश कर रहे थे. रात हो चली थी. आख़िर में सब बैठ गए, सबने अपना-अपना सामान रख दिया, और मैंने सुना कि इंजिन शुरू हो गया है. वह बड़ी देर तक गूँ-गूँ करता रहा और चिंघाड़ता रहा. मैं उकता गया.
मैं सीट पर पीछे की ओर टिककर बैठ गया और हौले से आँखें बन्द कर लीं, जिससे कुछ देर ऊँघ लूँ. फिर मैंने सुना, कि हवाई जहाज़ चल पड़ा, और मैंने पूरा मुँह खोल लिया, जिससे दाँतों में दर्द न हो. फिर मेरे पास एअर-होस्टेस आई, मैंने आँखें खोलीं – उसके पास ट्रे में सौ या हज़ार छोटी छोटी खट्टी, और पेपरमिंट की गोलियाँ थीं. मेरी पड़ोसन ने पहले एक गोली उठाई, फिर दूसरी, मगर मैंने एकदम पाँच उठा लीं और तीन, चार, पाँच और ले लीं. गोलियाँ स्वादिष्ट हैं, क्लास के लड़कों को दूँगा. वे ख़ुशी ख़ुशी ले लेंगे, क्योंकि ये गोलियाँ हवाई हैं, हवाई जहाज़ से आई हैं. अगर न चाहो, तो भी ले लेते हो. एअर-होस्टेस खड़े खड़े मुस्कुरा रही थी: जैसे कह रही हो, चाहे जितनी ले लो, हमें कोई अफ़सोस नहीं है! मैं गोली चूसने लगा और अचानक मुझे महसूस हुआ कि हवाई जहाज़ लैण्डिंग कर रहा है. मैं खिड़की से चिपक गया.
मेरी पड़ोसन ने कहा:
“देख, कितनी जल्दी आ गए!”
अब मैंने देखा कि हमारे सामने कई सारी बत्तियाँ प्रकट हो गई हैं. मैंने पड़ोसन से कहा:
“ आप देखिए – मॉस्को!”
वो देखने लगी और अचानक मोटी आवाज़ में गाने लगी:
“मॉस्को मेरा, ख़ूबसूरत...”
मगर तभी परदे के पीछे से एअरहोस्टेस बाहर आई, वही वाली, जो सबको गोलियाँ दे रही थी. मैं ख़ुश हो गया, कि अब वह और गोलियाँ देगी. मगर उसने कहा:
“कॉम्रेड, पैसेंजर्स, मौसम ख़राब होने की वजह से मॉस्को का हवाई अड्डा बन्द कर दिया गया है. हम वापस लेनिनग्राद आ गए हैं. अगली फ्लाईट सुबह सात बजे जाएगी. रात भर के लिए किसी तरह बन्दोबस्त कर लीजिए.”
मेरी पड़ोसन ने फ़ौरन गाना बन्द कर दिया. चारों तरफ़ लोग ग़ुस्से से शोर मचाने लगे.
लोग सीढ़ी से उतरे और चुपचाप अपने अपने घरों को चल दिए, जिससे सुबह वापस आ जाएँ. मुझे तो याद ही नहीं था कि मीशा अंकल कहाँ रहते हैं. मुझे ये भी मालूम नहीं था कि उनके घर तक कैसे जाना चाहिए. मुझे उन लोगों के साथ रहना पड़ा, जिनके पास रात को रुकने के लिए जगह नहीं थी. ऐसे लोग भी काफ़ी सारे थे, और हम सब रेस्टॉरेंट की ओर चले खाना खाने के लिए. मैं भी उनके पीछे पीछे चला. सब मेज़ों पर बैठ गए. मैं भी बैठ गया.
मैंने एक जगह पकड़ ली. वहाँ पास ही में टेलिफ़ोन-बूथ था, इंटरसिटी. मैंने मॉस्को का नंबर घुमाया. क्या ख़याल है, फ़ोन किसने उठाया होगा? मेरी अपनी मम्मा ने. उसने कहा:
“हैलो!”
मैंने कहा:
“हैलो!”
उसने कहा:
“ठीक से सुनाई नहीं दे रहा है. आपको कौन चाहिए?”
मैंने कहा:
“अनास्तासिया वासिल्येव्ना.”
उसने कहा:
“ठीक से सुनाई नहीं दे रहा है! क्या मारिया पेत्रोव्ना?”
मैंने कहा:
“तुम! तुम! तुम! मम्मा, ये तुम्हीं हो ना?”
उसने कहा:
“ठीक से सुनाई नहीं दे रहा है. एक एक अक्षर अलग अलग करके बोलिए.”
मैंने कहा:
“एम-ए, एम-ए. मम्मा, ये मैं हूँ.”
उसने कहा:
डेनिस्का, ये तू है?”
मैंने कहा:
“मेरी फ्लाइट कल सुबह सात बजे की है. हमारा मॉस्को का एअरपोर्ट बन्द है, वैसे सब ठीक ठाक है. पी-ए पी-ए क-ओ म-उ-झ-से मि-ल-ने को कहो!”
उसने कहा:
“अच्-छा!”
मैंने कहा:
“तो, अप-ना ख़-या-ल र-ख-ना!”
उसने कहा:
“इं-त-ज़ा-र करूँगी! पापा तुझे लेने के लिए ठीक सात बजे निकलेंगे!”
मैंने रिसीवर रख दिया, और मेरे दिल में एकदम हल्कापन महसूस हुआ. तब मैं खाना खाने गया. मैंने कटलेट्स और पास्टा का ऑर्डर दिया, एक गिलास चाय भी मंगवाई. खाते खाते, यहाँ की चौड़ी-चौड़ी, आरामदेह कुर्सियाँ देखकर मैंने सोचा: “ओ-ओ, इन कुर्सियों पर आराम से सोया जा सकता है”.
मगर जब तक मैं खाता रहा, बड़े अचरज की बात हुई: आधे ही मिनट के बाद मैंने देखा कि सब की सब कुर्सियाँ भर गई हैं. और मैंने सोचा: “कोई बात नहीं, मैं कोई सामन्त-वामन्त तो नहीं हूँ, फ़र्श पर भी सो जाऊँगा! कित्ती सारी जगह है!”
फिर एक आश्चर्य! आधे ही सेकण्ड में क्या देखता हूँ – पूरा फ़र्श लोगों से भर गया है: पैसेंजर्स, शॉपिंग बैग्स, सूटकेसेस, थैलियाँ, बच्चे भी; पैर रखने की भी जगह नहीं थी. मुझे ग़ुस्सा भी आ गया!
फिर मैं बैठे हुए, लेटे हुए, अधलेटे लोगों के बीच से जाने लगा. बस, यूँ ही टर्मिनल पे घूमने निकल पड़ा.
इस सोये हुए शहर में घूमना आसान नहीं था. मैंने घड़ी पर नज़र डाली. साढ़े ग्यारह बज गए थे.
फिर अचानक मैं एक दरवाज़े तक पहुँचा, जिस पर लिखा था: “इंटर-सिटी टेलिफ़ोन”. मैं ख़ुश हो गया! यहाँ आराम से सोया जा सकता है. मैंने हौले से गद्देदार दरवाज़ा खोला.
स्टॉप! अचानक उछल पड़ा: वहाँ पहले से ही दो लोग थे. दो अंकल. फ़ौजी अफ़सर. वे मेरी तरफ़ देख रहे थे, और मैं उनकी तरफ़.
फिर मैंने कहा:
”आप लोग कौन हैं?”
तब उनमें से एक, मूँछों वाले ने कहा:
“हम लावारिस हैं!”
मुझे उन पर दया आई, और मैंने बेवकूफ़ी से पूछा:
“और आपके माँ-बाप कहाँ हैं?”
मूँछों वाले ने रोनी सूरत बनाई और जैसे रोते रोते बोला:
“प्लीज़, मेहेरबानी करो, मेरे पापा को ढूँढ़ दो!”
और दूसरा, जो उससे जवान था, शेर की तरह ठहाके लगाने लगा. तब मुझे समझ में आया कि मूँछों वाला मज़ाक कर रहा है, क्योंकि अब वह भी हँसने लगा था, और उनके साथ मैं भी हँसने लगा. अब हम तीनों ही हँस रहे थे. उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और मेरे लिए जगह बना दी. मुझे गर्माहट महसूस होने लगी, मगर वहाँ तंग भी था और तकलीफ़देह भी, क्योंकि हर समय टेलिफ़ॉन बज रहा था और तेज़ रोशनी का बल्ब जल रहा था.
तब हमने एक अख़बार पे मोटे मोटे अक्षरों से लिखा: “टेलिफ़ोन आउट ऑफ़ ऑर्डर”, और जवान फ़ौजी ने बल्ब निकाल दिया. आवाज़ें बन्द हो गईं, रोशनी भी नहीं है. एक मिनट बाद बड़े दोस्त इस तरह खर्राटे लेने लगे, कि बस – ग़ज़ब! ऐसा लग रहा था जैसे वे बड़े बड़े लट्ठों को बड़ी बड़ी आरियों से काट रहे हैं. सोना तो असंभव था.
मैं लेटे लेटे अपने कारनामे के बारे में सोच रहा था. मज़ाकिया लग रहा था, और मैं पूरे समय अंधेरे में मुस्कुराता रहा.
अचानक एक ज़ोरदार, खनखनाती आवाज़ गूँजी:
“लेनिनग्राद-मॉस्को फ़्लाइट से जाने वाले मुसाफ़िर ध्यान दें! हवाई जहाज़ “TU- 104” क्रमांक 52-48, पन्द्रह मिनट बाद, चार बजकर पचपन मिनट पर अतिरिक्त उड़ान भरने वाला है. बोर्डिंग के लिए पैसेंजर्स कृपया अपने टिकट दिखाकर दो नंबर के गेट से प्रस्थान करें!”
मैं फ़ौरन उछला, जैसे मुझे शॉक लगा हो, और अपने पड़ोसियों को जगाने लगा. मैंने धीमी आवाज़ में, मगर साफ़ साफ़ उनसे कहा:
“ख़तरा! ख़तरा! उठो, ये ऑर्डर है!”
वे फ़ौरन उछल पड़े, और मुच्छड़ ने टटोल कर बल्ब वापस लगा दिया.
मैंने उन्हें समझाया कि बात क्या है. मुच्छड़ ने फ़ौरन कहा:
“शाबाश, बच्चे!”
अब मैं तेरे साथ किसी भी मिशन पर जाऊँगा.
मतलब, अपने लावारिसों को तूने छोड़ा नहीं?”
मैंने कहा:
“क्या कह रहे हैं, ऐसा कैसे हो सकता है!”
हम गेट नम्बर 2 की ओर भागे और हवाई जहाज़ में चढ़ गए.
यहाँ ख़ूबसूरत एयरहोस्टेस नहीं थीं, मगर हमें कोई फ़रक नहीं पड़ता था. और जब हम हवा में ऊपर उठे, तो छोटा वाला फ़ौजी अचानक ठहाका मार कर हँस पड़ा.
“तू क्या कर रहा है?” मूँछों वाले ने उससे पूछा.
“टेलिफ़ोन आउट ऑफ़ ऑर्डर”, उसने जवाब दिया. “ हा-हा-हा!” “टेलिफ़ोन आउट ऑफ़ ऑर्डर”!...”
“हम वो कागज़ निकालना भूल गए,” मूँछों वाले ने जवाब दिया.
क़रीब चालीस मिनट बाद हम सही सलामत मॉस्को में उतर गए, और जब बाहर निकले, तो पता चला कि हमें लेने कोई भी नहीं आया है.
मैंने अपने पापा को ढूँढ़ा. वो नहीं आए थे...कहीं भी नहीं दिखे.
मैं समझ नहीं पा रहा था कि घर कैसे पहुंचूं. मैं निराश हो गया. रोने रोने को हो गया. और मैं, शायद रो ही पड़ता, मगर अचानक मेरे पास रात वाले दोस्त आए, मूँछों वाला और छोटा वाला.
मूँछों वाले ने कहा:
“क्या, पापा नहीं आए?”
मैंने कहा:
“नहीं मिले.”
जवान फ़ौजी ने पूछा:
“तूने उन्हें कितने बजे आने के लिए कहा था?”
मैंने कहा:
“मैंने उनसे कहा था कि जो फ़्लाइट सुबह सात बजे निकलती है, उस पे आ जाना.”
जवान फ़ौजी बोला:
“समझ गया! यहाँ ग़लतफ़हमी हुई है. क्योंकि हम तो पाँच बजे की फ़्लाइट से निकले थे!”
मूँछों वाला हमारी बातचीत में शामिल हो गया:
“मिलेंगे, कहीं नहीं जाएँगे! और, क्या तू कभी ‘कज़्लिक’ में गया है?”
मैंने कहा:
“पहली बार सुन रहा हूँ! ये ‘कज़्लिक’ क्या चीज़ है?”
उसने जवाब दिया:
“अभी देख.”
और उन्होंने अपने हाथ हिलाए.
एअरपोर्ट के प्रवेशद्वार पे एक छोटी सी कार आई, बेहद गन्दी और धब्बों वाली. फ़ौजी ड्राइवर का चेहरा मुस्कुरा रहा था.
मेरे फ़ौजी दोस्त कार में बैठ गए.
जब वे उसमें बैठ गए, तो मुझे उदासी ने घेर लिया. मैं खड़ा था और समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ. बहुत दुखी था. मैं, बस, खड़ा था. मूँछों वाले ने खिड़की से सिर निकालकर पूछा:
“तू कहाँ रहता है?”
मैंने जवाब दे दिया.
उसने ड्राइवर से कहा:
“अलीयेव! एहसान का बदला चुकाना चाहिए?”
वह कार से बोला:
“करेक्ट!”
मूँछों वाला मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुराया:
“आ जा, डेनिस्का, ड्राइवर की बगल में बैठ जा. तुझे पता चलेगा कि फ़ौजी कैसे मदद करते हैं.”
ड्राइवर दोस्ताना अंदाज़ में मुस्कुराया. मुझे लगा, कि वो अंकल मीशा जैसा है.
“बैठ जा, बैठ जा. हवा की स्पीड से ले चलूँगा!” उसने भर्राई आवाज़ में कहा.
मैं फ़ौरन उसकी बगल में बैठ गया. मुझे ख़ुशी हो रही थी. ऐसे होते हैं फ़ौजी! उनके साथ रहो, तो ज़रा भी नहीं भटकोगे.”
मैंने ज़ोर से कहा:
“करेत्नी र्याद स्ट्रीट!”
ड्राइवर ने चाभी घुमाई. हम चल पड़े.
मैं चिल्लाया:
“हुर्रे!”