अनोखा रक्षाबंधन
अनोखा रक्षाबंधन
बात उस समय की है जब हम दो बहने , मैं 13 -14 वर्ष की और बहन 17 -18 वर्ष की रही होगीं। हम अहमदाबाद में रहते थे, 1968-70 का महानगर। हम लड़कियों के लिए बेहद सुरक्षित शहर था। रात -रात भर हम गरबा करते। रात दो बजे लौटते या चार बजे, कोई खतरा नहीं था। अक्सर हम सहेलियां फिल्म देखने जातीं।। त्यौहार हो, पर्व हो, सब मिलकर फिल्म देखने जाते, बाहर ही खाना और आईसक्रीम खाते। हमारे माता-पिता भी खुले विचारों के थे, सबसे बड़ी बात थी कि आज जैसी आपराधिक घटनाएं कभी सुनने में भी नहीं आती थीं।
उस दिन रक्षाबंधन था, छुट्टी थी, हमारा कोई भाई नहीं था, तभी शायद इस दिन की खुशी कहें या बहनों की व्यस्तता का अंदाजा भी नहीं था। मुझसे कभी कोई पूछता भी कि भाई न होने का दुख होता है, तो मैं जो सच्चाई थी, वही कहती, ना, जरा भी नहीं। मैं छोटी और लाड़ली थी, तो मैंने किसी तरह की कमी कभी महसूस नहीं की थी, हां, इस तरह के सवालों के बाद लगता कि भाई होता, तो कैसा लगता!! मेरा ऐसा मानना है कि आप किसी चीज की कमी तब महसूस करते हैं, जब कोई दूसरा उसे अपने पास होने का रौब आप पर गालिब करता हो, तब यकीनन आपको एहसास- ए - कमतरी या रश्क हो सकता है। मेरे साथ ऐसा कुछ हुआ नहीं था तो मुझे किसी तरह की महरूमियत नहीं लगी थी।
वो दौर भी क्या था! उन दिनों या तो बच्चे भोले होते थे या नीरे बुद्धू , मुझे पता ही नहीं था कि मां घर में एक नया मेहमान लाने वाली हैं। उस दिन स्कूल की छुट्टी थी, रक्षा बंधन था, सो देर तक सोना था, मगर सुबह - सुबह घर में अफरातफरी मच गई। यह सामान रखो, वह सामान रखो, टोकरी कहां है, थरमस कहां है, चादर कहां है? मैं भी आंखें मलते हुए उठी, बाहर देखा एक टैक्सी खड़ी थी, मां को पड़ोस में रहने वाली दो मासीजी( हम हर एक महिला को मासीजी पुकारते थे) अगल-बगल सहारा देकर टैक्सी में बैठा रही थीं। मैंने बड़ी बहन से पूछा, मां कहां जा रही हैं, उन्होंने बताया, अस्पताल। मुझे नींद की खुमारी इतनी थी कि मैं जाकर दोबारा सो गई।
करीब आधे घंटे बाद पड़ोस की नीतू आई, उसने कहा, गाइड रिलीज हो गई है। आज चलें मैटिनी शो देखने ? पैसों का भी जुगाड़ हो गया है और मम्मी ने भी हां कह दी है।
मम्मी- पापा तो थे नहीं घर में , बड़ी बहन से ही परमिशन लेनी थी। मुझे यह भी अनुमान नहीं था कि वो परेशान क्यों थी सोचा, जाने क्या बात है कि ये इस क़दर परेशान हैं। अब इनसे फिल्म देखने जाने की परमिशन ली कैसे जाए ? वैसे भी उनका मूड देखना होता था, अच्छे से पिटाई भी कर दिया करती थीं, जो नाराज़ होती थीं।
इधर नीतू फिर आई, इशारों-इशारों में पूछा कि क्या हुआ फिल्म देखने के प्रोग्राम का!
अब कोई चारा तो था नहीं सिवाय बड़ी बहन से पूछने के, जब उनसे पूछा तो डांट लगाई, मां अस्पताल में हैं, तुम्हें फिल्म देखने की पड़ी है।
डरते हुए मैंने पूछा, कब तक लौटेंगी ?
उन्होंने कहा, अब मासीजी (पड़ोसन)आएं , तो मालूम चले। मैंने निगाहें घड़ी पर डालीं। 3:30 का शो होता था घर से 2:00 बजे निकलेंगे, तो कहीं जाकर सही वक्त पर टिकट ले पाएंगे और फिल्म देख पाएंगे। इस समय 11:30 बज रहे थे! तैयारी भी तो करनी थी, कपड़े प्रेस करने थे। इजाजत मिल जाती तो शुरू करते, साप्ताहिक सिर के बाल धोने वाली कवायद, बाल सूखने में घंटा भर लग जाना था। मायूस होकर मैंने और नीतू ने एक दूसरे की तरफ देखा।
मगर यह क्या, किस्मत बहुत अच्छी थी। तभी मासीजी आ गईं बोलीं , "कुड़ियों, (लड़कियो) मुबारकां, मुबारकां खुशनसीब हो, रखड़ी(रक्षाबंधन) वाले दिन तुम्हारा भाई आया है। जल्दी , जल्दी तैयार होओ और बाजार जाओ रखडीयां , मिठाई ख़रीदो और पहुंचो अस्पताल, मैं तुम्हारे मासड(मौसा जी) जी को कहती हूं, तुम्हें अस्पताल ले जाएं, फटाफट आधे घण्टे में निकलो।
बस, फिर तो भाई भी मिला, राखी भी बांधी और फिल्म भी देखी, लौटकर भाई का नामकरण किया, " राजू " यही नाम था गाईड फिल्म में देवानंद का।