उजाले की चाह
उजाले की चाह
जाने क्यों
सब छूट-सा रहा ,
क्यों ये
जीवन रूठ-सा रहा ,
अंदर सब जम-सा गया ।
लाख कोशिशों पर भी
बहता ही नहीं ।
गम कुछ ज्यादा ही
छलनी कर गया ।
जख्म पे जख्म दे गया ।
मलहम कोई असर
दिखाता ही नहीं ।
बस, अब उसका इंतजार
जो इस दिल को धड़का रहा ।
मेरी साँसे ढूँढ रहा
और मैं बर्फ-सी जमती जा रही ।
पर फिर भी मैं जिंदा
चलती-फिरती,
खाती-सोती,
अपने को पालती ।
न शिकवा,
न शिकायत ,
न कोई नाराज़गी ।
जिंदगी को दर्द की
परतों के नीचे से
निकाल रही
पर निकलती नहीं ,
कभी आँसुओं के सैलाब में डूब जाती,
कभी यादों के तूफानों मेें खो जाती,
पर निगोड़ी धड़कन
धड़कने के बहाने खोजती ही रहती,
दरारों से दीए की रोशनी निहारती रहती ,
उजाले की चाह में
जीती ही रहती ,
जीती ही रहती ।