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ARVIND KUMAR SINGH

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ARVIND KUMAR SINGH

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ठिठुरती रातें

ठिठुरती रातें

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बिलखती साँझों का मंजर कहीं पर

कहीं डीजे का धूम धड़क्‍का होने को है,

आसमां को छू रही शोहरत किसी की तो

कोई सिर्फ नीली सी छतरी मे सोने को है...


दिन भर भटकेें कुछ पाने की खातिर

पर बिना मिले क्‍येां बिवाई फटती है

मौत से बद्तर लगने लगी जिन्‍दगी

समझ न आवे काटे से नहीं कटती है


आटा तो संजोया दो जून की खातिर पर

भीगी सी वो लकड़ी अब जलती नहीं हैं,

फाँकों के बीच में छतें भी तो टपकतीं

काली स्‍याह रातें जहाँ अब ढलती नहीं हैं...


आसमां ने तो ढकने की कोशिश की मगर

कुंठित सी धरती तो अब भी रोने को है,

कोई तो बढाये कदम थाम लेने की खातिर

जिंदगी जो ठिठुरती रातों में सोने को है...


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