सोचा देखूँ दर्पण आज
सोचा देखूँ दर्पण आज
सोचा देखूँ दर्पण आज
निहारूँ खुद को थोड़ा आज
सामना हुआ जब खुद का खुद से
चौंक पड़ा मैं अचानक आज
नज़रों ने जब नज़रों को देखा
प्रश्नवाचक एक तीर सा फेंका
पूछा मुझसे मेरी नज़रों ने
कहाँ है वो बचपन की चंचलता
आई कहाँ से तुझमे ये कुटिलता
उतार कर देख ज़रा अपना मुखौटा
अपना साफ मन का बचपन फिर लौटा
थी जिसमें एक सच्ची मुस्कान
था जो दिल से बेहद साफ
मैंने कहा वो है कहीं मेरे अंदर
पर है जिम्मेदारियों का बोझ मुझ पर
इसीलिए नीकल के वो आ नहीं पाता
और खुद को में ये हूँ समझाता
की हो जाऊँ एक बार जिम्मेदारियों से मुक्त
फिर जीऊंगा खुल के हर वक़्त
हँसी निकल पड़ी नज़रों से
बोलीं ये ज़िम्मेदारी तो है समय की माया
जिससे कोई भी बच न पाया
है तुझे जिस दिन का इंतज़ार
आएगा वो दिन केवल एक बार
जिस दिन तू सांस लेगा अंतिम बार
इसलिए जी ले आज खुल के
निकल जाएगा वक़्त हाथ से रेत बन के
