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kiran singh

Others

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kiran singh

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शायद

शायद

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क्यों बेचैन मन

क्या चाहिए उसे

शायद शिकायत है

उसे

स्वयं से ही

इसी लिए असंतुष्ट

भटकता रहता है

इत उत

लक्ष्य विहीन

मन


मन

देखता है

स्वर्ण पिंजर में

कैद पक्षियों को

और तुलना करता है

वेफिक्र उड़ते हुए

नील गगन में पक्षियों से

तभी एक आह सी

निकलती है

और तड़प उठता है

मन

शायद

मन

चाहता है पतंगों की तरह

उड़ना

नील गगन में

इसीलिए

सुलझाने लगता है

उलझे हुए डोर को

इस क्रम में

भूल गया

स्वयं ही स्वयं को

पर

रह गया उलझकर

खुद को सुलझाने में

मन

शायद

मन की

भूली बिसरी स्मृतियां

फिर से

स्मृति पटल पर

ब्याघात करने लगतीं हैं

कुछ

कुंडली मारे

सर्प की ही तरह

तभी टूट जाती है

बिस्मृत निद्रा

आँखे

करने लगती हैं

रात्रि जागरण

तभी विचलित

हो उठता है

मन।


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