परिवार की ढाल
परिवार की ढाल
एक ही माटी से बना मानव,
कुदरत ने दिए उसको दो रूप बांट
एक बना आदमी, एक बनी औरत...
बाहरी संरचना दी बदल पर अंदर से दोनों एक।।
दर्द दोनों को होता, खुशी भी दोनों को होती,
दिल भी दोनों का धड़कता, जिम्मेदारी भी दोनों निभाते,
पर दोनों के भीतर अपने आप को जाहिर करने का तरीका अलग होता।।
रोता है आदमी भी, पर दिखाता नहीं
अपनों की खुशी के लिए, अपनी थकान छुपाता है आदमी,
क्या होगा, कैसे होगा इसी सोच विचार में लगे रहता हैं आदमी।।
गलती उसकी नहीं, समाज की है
जो उसे अपना दर्द जाहिर करने नहीं देता
तू मर्द है तुझे रोना नहीं है
रोना तो औरतों का काम है,
तू अपना दर्द अपने ही अंदर रख।।
अंदर ही अंदर रख कर
तू एक दिन "हार्ट अटैक"का पेशंट बन
पर रो मत कुछ बोल मत ।।
आदमी रोता है,पर अकेले में
परिवार में कलेश देख दिल दुखता है उसका
पर रोता है अकेले में,
झुटे "दहेज़ केस" में फंसाया जाता है
उसका परिवार दुख के सागर में डूब जाता है
तब उसका अंतर्मन भी हिल जाता है,
पर वो रोता है अकेले में...
क्यों?
इसलिए कि वो जानता है,
वो कमज़ोर दिखा तो, सब टूट जाएंगे
वो रोया तो, परिवार की खुशियां कम हो जाएंगी,
वो परिवार की एक मजबूत नींव है
वो अगर डेह जाएगी तो उसका परिवार ख़तम हो जाएगा।।
इसलिए वो रोते हुए भी हसता है
और एक मजबूत चट्टान की भांति खड़ा रहता हैं...
