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Sharda Kanoria

Others

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नारी मुक्ति का आगाज़

नारी मुक्ति का आगाज़

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यह नारी ईश्वर की अद्भुत कृति

घर में, गांव में, झूमती रहती।

उफ्फ कब बन गई भोग्या वह,

और खो गई आजादी उसकी।

कभी गले में मंगलसूत्र पहना,

कभी अपनी संपत्ति समझ।

पुरुष ने कैद किया नजरों में,

यूं हक जमाने लगा उस पर।

कभी स्त्री मातृशक्ति थी, महिषासुर का नाश करती थी।

कितनी अड़चनों के बावजूद, कुल की रक्षा यह करती थी।

हर घर के हर आंगन में,

पायल की छम छम बजती थी। पत्नी बन अपार प्रेम लुटाती,

मां बन वात्सल्य से दुलारती।

हर घर की सांस है नारी,

पुरुष के समकक्ष खड़ी नारी। कभी गुड़िया सी आंगन में ठुमकती,

कभी मां बाबा के दुलार से छलकती।


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पुरुष ने जायदाद समझ अपनी,

हक जमाया मुझ पर।

पर मैं हूं मेरा अपना अस्तित्व है।

मैं पेड़ की पत्ती सी, एक कली सी, 

इस दुनिया के बाग की फूल सी।

मैं नारी हूं पर अबला नहीं,

मेरी आंखों में अश्रु है पर कमजोर नहीं।

दिखला दूंगी एक दिन सबको, 

तुम मुझसे हो मैं तुमसे नहीं।

मेरे सीने में उठी आग है,

दर्द से आहत जान है।

फिर भी मैं रहूंगी तन कर खड़ी, 

अन्याय से कभी ना डरी।

चुनौतियों से टकराऊंगी,

आजाद अपने को करवाऊंगी।

छंट रही है काली घटा,

टिमटिमाने लगे हैं तारे।

साक्षी बनेंगे यह सभी,

पुनरुत्थान के हमारे।


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