हवा का प्रतिशोध
हवा का प्रतिशोध
🌫️ हवा का प्रतिशोध 🌫️
✍️ श्री हरि
🗓️ 5.11.2025
उस रात शहर के ऊपर
एक अदृश्य कोहरा उतरा —
जैसे किसी ने धूल में बदला घोल दिया हो।
घंटों तक कोई साँस नहीं ली…
हर कोई अपनी ही छाती में
खामोश धड़कनें ढूंढता रहा।
लोगों को लगा —
हवा लौट आई है।
पर यह वही हवा नहीं थी
जो बचपन में कागज़ की नावें उड़ाया करती थी।
यह कुछ और थी —
ठंडी, सूनी, और बदले की गंध से लिपटी।
पहला शिकार बना “कारख़ाना रोड” का मालिक —
जिसने पेड़ों को काटकर
स्टील की दीवारें उगा दी थीं।
रात के तीन बजे
उसके कमरे की खिड़की खुली
और हवा अंदर आई —
धीरे से, मुस्कुराकर।
सुबह लोग बोले —
“वो नींद में ही दम तोड़ गया।”
पर डॉक्टर ने कहा —
उसके फेफड़ों में हवा नहीं,
राख भरी थी।
फिर आई नंबर दो —
“सुवासिनी” नाम की परफ्यूम कंपनी वाली,
जो महक बेचती थी,
पर हवा को जहर बनाती थी।
हवा ने उसे उसी की खुशबू में डुबो दिया।
बोतलें फटीं,
सुगंध से धुआँ उठा,
और दीवारों पर उभरा एक वाक्य —
“तुमने मेरी खुशबू बेची थी —
अब मैं तुम्हें बेच दूँगी।”
शहर में अफवाह थी —
किसी युवती का साया सड़कों पर चलता है,
बाल उड़ते हैं, पर हवा नहीं चलती।
लोग कहते —
वो “गुमशुदा हवा” का रूप है।
कभी चौराहों पर दिखती,
कभी बच्चों की साँसों में समा जाती।
और फिर एक दिन —
नगर निगम के मेयर ने आदेश दिया —
“हवा को पकड़ो!”
मशीनें लगीं, वैज्ञानिक बुलाए गए,
पर हवा न जाल में आई, न शीशियों में।
उसने बस एक झोंका छोड़ा —
जिसमें लिखा था —
“जिस दिन इंसान फिर से पेड़ों से माफ़ी माँगेगा,
मैं लौट आऊँगी —
दुल्हन बनकर,
न कि चिता की लपट बनकर।”
उस रात बरसों बाद
बारिश हुई।
लोगों ने सोचा — हवा पिघल गई।
पर एक बच्चे ने कहा —
“माँ, कोई मेरे कान में कह रहा है —
अभी तो शुरुआत है…”
