गंवार
गंवार
सबको हम करते हैं बिना शर्त का प्यार।
फिर भी हमको जाने क्यों कहते लोग गंवार ।।
हम दलिया रोटी खाते हैं,
वो पिज्जा बर्गर खाते हैं।
हम चटनी में खुशी मनाते हैं,
वो चाऊमीन मंगवाते हैं।।
हमें माँ के हाथ की रोटी मिलती, मिलता माँ का प्यार।
फिर भी हमको जाने क्यों कहते लोग गंवार ।।
हम सर पर साड़ी रखते हैं,
वो जीन्स टॉप पहनती हैं।
हम जानते सीमा घूँघट की,
वो छुटी पतंग सी उड़ती हैं।।
हम इज्ज़त सबकी करते हैं, करते सच्चा व्यवहार।
फिर भी हमको जाने क्यों कहते लोग गंवार ।।
आर्टिफिशियल पहन के गहने,
खुद को सुंदर समझा जाता है।
हम लोगों के गाँव का उबटन,
उनको एक आँख न भाता है।।
देखकर हमको जलते हैं जब हम करते सोलह श्रंगार।
फिर भी हमको जाने क्यों कहते लोग गंवार ।।
गाँव के घर में बैठकर हम सब,
सुख दुख की बातें करते हैं।
शहरों में नहीं समय किसी पर,
मोबाइल में ही व्यस्त रहते हैं।
निभाकर सारे रिश्ते-नाते, जोड़ते हम परिवार।
फिर भी हमको जाने क्यों कहते लोग गंवार ।।