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एक और घर था

एक और घर था

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मेरे घर के सामने ,एक और घर था,


पलते थे पंख जहाँ,

छूने आसमान की ऊंचाइयों को,

तिनकों की तुरपाई जहाँ,

देती आश्रय नन्ही ज़िंदगियों को।

एक और...


पुरखों की कर्मठता दर्शाती,

सेतुबंधन कि याद दिलाती,

निश्छल निर्द्वंद,उछलती कूदती,

आश्रय देता उस नन्ही गिलहरी को।

एक और...


चढ़ते दिनकर की रश्मियों में,

अपनों को पोषित करने की उस फड़फड़ाहट।

और ढलते दिनकर की रश्मियों में,

अपनों से मिलने की उस चहचहाहट से गूँजता।

एक और...


निःस्वार्थता की मूर्ति, परमार्थ का द्योतक था,

पर फिर भी न जाने क्यूँ,

अपने अंगों पर कुल्हाड़ी की चोट झेल रहा था,

चुप चाप खड़ा मुस्कुराता।

एक और...


प्रत्येक अंग पर प्रहार झेल रहा था,

क्यूंकि वो अचल पेड़ था,

और मैं चुप चाप खड़ा देख रहा था,

क्यूंकि मैं घर में सबसे छोटा था।


मनुष्य को अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मरते देख

उनकी नादानी पर मुस्कुराता

एक और घर था मेरे घर के सामने।


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