STORYMIRROR

पूर्णेश्वर पाण्डेय

Others

3  

पूर्णेश्वर पाण्डेय

Others

आज़ाद भारत की ग्रामीण नारी

आज़ाद भारत की ग्रामीण नारी

1 min
28.2K


छांव में जिस तरुवर की,

खेलती निर्द्वन्द्व थी मैं।

पड़ी नज़र साखों पर बढ़ई की,

देखती रही अनजान थी मैं।


टुकड़ों में टूटते उसकी पीड़ा की,

मूक गवाह बन रही थी मैं।

हुई तैयारी शुरू आशियाँ की,

स्वजनों संग रहने लगी थी मैं।


न बोध न भिज्ञता थी सीमाओं की,

कूदती लाँघती स्वंत्रत खेलती थी मैं।

माँ समझाने लगी सीमाएं चौखट की,

घर की चारदीवारी में सिमटने लगी थी मैं।


हुई शिकन दूर माता-पिता की,

भविष्य के सपने मे खोने लगी थी मैं।

सज़ा टिका सजी चुनरी माथे लाल रंग की,

लांघ चौखट पिया द्वारे की अंदर आई थी मैं।


फिर दोहराई गईं सीमाएं चौखट की,

संस्कारी हूँ इसलिए चुप चाप सुनती हूँ मैं।

निहारने मिलन रश्मियों की,

खड़े किवाड़ के पीछे झांकती हूँ मैं।


बड़े नामी परिवार की,

कुंठित मानसिकता की गवाह हूँ मैं।

सीमाओं में सीमित चौखट की,

आज़ाद भारत की ग्रामीण नारी हूँ मैं।


Rate this content
Log in