बारिश की वेदना
बारिश की वेदना


मैं घनेरे बादलों संग संग चली थी
कितने लाड प्यार से उनसे मिली थी
तपती धरा जब प्यास के व्याकुल हुई
प्यास बुझाने तब वहाँ से चल पड़ी थी
मैं धरा को नीर देकर ये क्या किया
हाय !देखो मुझको धूल में रहने दिया
फिर भी बिखेर दी है सौंधी खुशबू
आज फिर मुझको ही धूल किया
गिरी पहाड़ों के जब ऊपर चोटिल हुईं
मेरी हर बूँद बूँद क्यूँ आज धूमिल हुई
तुम विधाता रख नहीं देते धरा पर क्यूँ
आसमान से गिरकर न फिर चोटिल हुईं
मेरी पीड़ा को भी कोई महसूस करे
इतने ऊपर से गिरकर ही कुछ करे
अपने आँसू को पी कर प्यास बुझाई
हे मानव तुझको तरस जरा न आई
रात रात को बरस कर मैं भीगी हूँ
ठण्ड से काँपती ही जीती मैं
तुम ओढ़ा दो प्यार से चद्दर मुझे
बारीश की वेदना हूँ घुटकर जीती हूँ