अपेक्षा
अपेक्षा
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मेघ घिर जाते हैं,
बरसते क्यूं नहीं,
धूप में जो जल चुके हैं,
उन्हें भिगोते क्यूँ नहीं।
मेरी मुंडेर पर आती है,
रोज प्यासी गौरैय्या,
सूखते पंख में नमीं की,
ओस पिरोते क्यूं नहीं।
बहुत उम्मीद किया है,
तुमसे बादल,
सूखते ताल को,
सावन में भरते क्यूँ नहीं।
तुम तो बादल हो छाते हो,
तो उम्मीद सी ले आते हो,
धरा बेसुध है, पेड़ सूखे हैं,
उन्हें नव-जीवन देते क्यूं नहीं।