गिलौरी
गिलौरी
यह जो रोज़
इक कहानी सा
एक-एक दिन
कट जो रहा है
उपसर्गों को
नया प्रत्यय
मिल रहा है
कभी मेंहदी सा
तो कभी पान सा
हथेली से ज़ुबां तक
उभर तो रहा है
शायद
अद्वितीय ना हो
पर,
कथानक तो है
किसी सफर पर
अनुभवयुक्त
पान का बीड़ा तो है
जो होंठों पे
सजता भी है
जिव्हा का स्वाद
बदलता भी है
कभी कटक
कभी मगही
कभी बनारसी
तो कभी मीठा-पत्ता
अभिन्न किंतु विभिन्न
स्वाद की गिलौरी सा
ज़ुबां से अंक लगकर
रस घोलता तो है
कभी पूजा
कभी शगुन
कभी स्वाद
कभी हाजमे का दूत
लज्ज़ा, शोभा
प्रेम और
आनंद का स्वरूप
रोज़ जिव्हा को
एक नया अनुभव
दे तो रहा है
खट्टा-मीठा,
तीखा-फीका
जिंदगी का स्वाद
पन्नों पे संजोते
वर्ष-दर-वर्ष
जो गुज़र रहा है
इनमें शायद कहीं
दोस्ती सा
रिश्तों सा
बंधा महक रहा है
मियां यह पान है
जुबां पे शहद
होठों पे रंग
दिलों में स्वाद का रस
घोल रहा है
नीरस से
बस नी को हटाना है
रसास्वादन करना है
आप मगही लें
या बनारसी
बस इसे शगुन सा
जुबान पे रक्खें
देखिये उन्माद
कैसे केवड़े के रस को
कत्थे में घोलता है
और होठों पे
रच-बस जाता है
सच अगर
पान की गिलौरी सी
जीवन कथा हो जाय
जो प्रतीक दे
सटीक दे
हर गुण को शगुन कर दे
सहज हो
सरल हो
बस यही तो चाहत है।