वक्त
वक्त
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"वक्त"! मिलता कहाँ हैं आजकल?
उस से तो अब हम मिलते है।
वस पर लगाएं उड़ना
रहता है उसको
उसे तो अब हम रोकते हैं।
यूँही चलती रहतीं हैं
दौड़ हमारी
कभी वह आगे
तो कभी मैं उसे थामे।
फिर मेरा गुरूर से कहना
कि यह तो मेरा 'वक्त ' है।
और फिर
मंद मंद मुस्कुराना उसका
मीठा सा उलहाना उसका
और कहना, "पगली"
मैं 'वक्त'
कब किसी का हो के रहा!