Mrugtrushna Tarang

Children Stories Comedy Thriller

3  

Mrugtrushna Tarang

Children Stories Comedy Thriller

ट्रांज़िस्टर रेडियो!

ट्रांज़िस्टर रेडियो!

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    रेडियोग्राम के शहीद होने के पश्चात उस ग़म को भुलाने की मेरी तमाम कोशिशें नाकाम होती चली जा रही थी। गुमसुम सी उसी रेडियोग्राम की ख़ाली जगह वाला कोना पकड़ें घंटों उस कोने से सटी मेरी रेडियोग्राम वाली यादों को सहेजने लगतीं।

      माँ और चाची को मेरा वो पागलपन समझ से परे होता चला जा रहा था। कि एक दिन टीवी पर 'सुजाता' फ़िल्म की झलकियां दिखा रहे थे। शायद बलराज साहनी जी का साक्षात्कार दिखाया जा रहा था। और उनकी आवाज़ मैंने उस ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर हॉल में रेडियोग्राम को याद करते हुए सुनी।

      मुझे अदनोनद रेडियोग्राम जैसी ही आवाज़ लगीं। और मन प्रफुल्लित हो उठा। चाची ने रेडियोग्राम के बदले में टीवी कितना फ़ायदेमंद है, वो बताते हुए मेरे सामने टीवी के गुणगान गाने लगी।

      सुनने की आदी मैं देखने के लिए लालायित होने लगी।

      मैदानी खेलों के बाद घर के कड़क नियमानुसार शाम के सात बजे घर लौटने की हिदायतें काम कर गई। वरना गुड्डो रानी यानी कि मुझे डंडे खाने मंजूर रहते, पर खेल बीच मे छोड़कर दोस्तों से ग़द्दारी करना मंजूर न रहता था। मेरे मोहल्ले की पी. टी. ऊषा जो ठहरीं!!

      फिर क्या था। टाइम टेबल सा बनता चला गया।

      स्कूल से लौटते ही यूनिफॉर्म बदलकर कुरमुरे का नाश्ता करने भर की देर रहतीं। और नीचे से दोस्तों की पुकारें शुरू हो जाती। खेल कूद में लंगड़ी, पकड़ंपकड़ै, कबड्डी, छुपनछुपाई, गीली डंडा और न जाने कितने खेल खेलते रहतें।

      फिर सात बजने के क़रीब क़रीब माँ या चाची की आवाज़ें खेल को बीच मझधार छोड़ जाने का वक़्त आ जाता। बाकी सारे बच्चे देर तक खेल पाते। तब मन में हमेंशा ये ख़याल सताता रहता। कि, उनकें माँ पापा कैसे होंगें, जो उन्हें इतने लंबे अरसे तक खेलने की सहुलियत देते थकते नहीं थे। और एक मेरे माँ और पापा, हमेंशा शिस्तता का पाठ पढ़ाया करतें।

      खैर, मैदानी खेल के पश्चात नहा धोकर होमवर्क की बारी आती। और तभी टीवी पर छायागीत का वक़्त होता था। मेरी चाची को भी गानों का बहुत शौक़ था। वो मुझे तब पता चला।

      रेडियोग्राम के बजने पर चाची किचन में काम करते या फिर उनकें बैडरूम में साफसफाई करते करते अक़्सर गानों की धुन गुनगुनाया करती थी। उनका वो चंचल मन टीवी में आ रहे 'छायागीत' में दिखाए जाने वाले गीतों को अपनी मधुर स्वर में गुनगुनाती। और मेरा चंचल मन भाँप ही लेता की 'छायागीत' प्रोग्राम शुरू हो चुका है। और मुझसे छुपाने के लिए टीवी का वॉल्यूम मध्धम रख दिया गया है। ताकि, मैं अपने होमवर्क को पूरा कर सकूँ।

      चाची को मुझे लगाई जाने वाली डाँट फटकार से बहुत चिढ़ थी। लेकिन, खुद के औलाद न होने पर 'बेऔलाद' वाला वो लेबल उन्हें खूब चुभता रहता। उसी ग़म को भुलाने के लिए चाची टीवी ऑन कर गुमसुम सी बैठी रहतीं। सिर्फ़ छायागीत से ही चहक उठतीं। बिल्कुल मेरी तरह।

      होमवर्क में से जी बारी बारी से मचले जा रहा था। और उसका एक कारण रेडियोग्राम की कमी भी तो थी। रेडियोग्राम की गोद में ही दीवार से सटकर बैठती। और मानों रेडियोग्राम अपनी बाहें फैलाकर मुझे अपने में समा लेता। और गानें गुनगुनाते हुए मैं बेमन से होमवर्क करने लगती।

      वरना पापा की फटकार आये दिन हाथों की ऊँगलियों को सूझा देतीं। लकड़ी की रूलर उल्टे हाथ खूब ज़ोर से पड़ती। आह निकल जाती। पर पापा का हाथ कभी न रुकता।

      बर्बस, इसीलिए चाची टीवी का वॉल्यूम कम रखतीं। और उससे पूर्व मुझे होमवर्क जल्दी से निपटाकर फ्री होने की रिक्वेस्ट भी करती। जिससे वे अपना पसंदीदा प्रोग्राम खुले मन से देख सुन और एन्जॉय कर सकें।

      उस रात आठ बजे के क़रीब छायागीत आरम्भ हुआ। मेरा होमवर्क बाकी था। और मैथ्स के प्रोब्लेम्स सॉल्व करने में मुश्किलें आ रही थी।

      रेडियोग्राम के रहतें भी ऐसी समस्याएँ पहले आ चुकी थी। पर गानों की धून को गाते गाते चुटकियों में वो प्रोब्लेम्स सॉल्व हो जाया करते थे। और अब दीवारों से सिर भी पटक लूँ, प्रॉब्लम और ही उलझता जाता। हाँ तो उस रात छायागीत प्रोग्राम में 'सुजाता' फ़िल्म का वो मशहूर गाना बज रहा था -

      'बचपन के दिन भी क्या दिन थे...' मुझसे रहा न गया। और मैं होमवर्क की कॉपियों को यूँही खुला छोड़ भाग खड़ी हुई। बैडरूम का दरवाजा बंद था। कुंडी नहीं लगाई हुई थी। तो मैंने उसे खटखटाने की जेहमत उठानी चाही। फिर ख़याल आया कि, चुपके से ही एक दो गाने सुन देख लेती हूँ। और फिर होमवर्क करने बैठ जाऊँगी। और अगर दरवाज़ें को दस्तक दी तो बेड़ा ग़र्क़ हो जाएगा। टीवी देखने तो नहीं मिलेगा ही, उल्टा होमवर्क छोड़ आने पर डाँट भी सुननी पड़ जाएं। और उसी चक्कर में प्रोग्राम भी ख़त्म हो जाएगा और सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा सो अलग।

      बस, फिर हौले से बिना आवाज़ किये दरवाज़ा खोला। और कनखियों से टीवी का आनंद उठाने लगी।

      और 'चलती का नाम गाड़ी' फ़िल्म का मशहूर और चुलबुला सा गाना आया -

      'हाल क्या है जनाब का? क्या ख़याल है आपका...' और अब तक चुप खड़ी मैं एक्टिंग समेत गाने लगीं। चोरी छुपे टीवी देखने की वो आइडिया पकड़ी गई। और उस दिन चाची, माँ से खूब डाँट पड़ी। और पापा से ढेर सारी फटकारे।

      तब से फिर एक बार मुझे रेडियोग्राम याद आ गया। रेडियोग्राम सुनते सुनते होमवर्क झटपट हो जाता था। और तो और चाची, दादी और माँ को उनके कामों में थोड़ी बहुत मेरी ओर से हेल्प भी हो जाया करती थी।

      मुए टीवी ने तो देखने की लालच में बेड़ा ही ग़र्क़ कर दिया था। मैं टीवी से नफ़रत करनें लगी थी। और अपने प्यारे रेडियोग्राम को बहुतायत मिस भी कर रही थी।

      उसका भी उल्टा असर मेरी रूटीन पर पड़ा। फिर एक बार टाइम टेबल बदला। और मैं टीवी से दूर अपने आप में गुम होने लगी।

      70 का दशक ख़त्म होने के एक वर्ष बाद या शायद 1982 में पापा ने कलर टीवी की एंट्री हमारे घर में की थी। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्में और गानें अब रंगीन दिखने लगे थे।

      चाची ने मेरा नफ़रतों से भरा मन फिर एक बार रेडियोग्राम से हटाकर टीवी की ओर मोड़ना चाहा। पर, टीवी के कारण मिली उस दिन की फ़टकार ने जो ज़ख़्म दिए थे। वो अब तक नासूर बन चुके थे।

      चाची का मन रखने के लिए मैं तबस्सुम जी का साक्षात्कार वाला प्रोग्राम देखने बैठ तो गई। पर सिर्फ़ शरीर वहाँ उस कलर टीवी के सामने था। लेकिन मन तो उन सुनहरी यादों में गुम सा था। जो रेडियोग्राम सुनते वक्त गानों के बोल सुनते सुनते अपने ही ख़यालों में खोकर ये सोचता रहता कि, फिल्मी कलाकार ऐसा घूमते होंगे। पेड़ के पीछे यूँ चक्कर काटते होंगे। या दुश्मन को मार गिराने के लिए वो वाली तरक़ीब आजमाई होगी।

      तर्क करना और उसे उसी अंदाज़ में देखना मुझे खूब भाता था। आठवीं कक्षा तक आते आते मैं कहानियाँ और कविताएँ रचने लगी थी।

     चित्रकला की कॉम्पिटिशन में विश्व रेडियो दिवस टॉपिक पर मैंने अपने ही उस ख़ास रेडियोग्राम का चित्र निकाला था। और हूबहू उसके जैसा ही रंग भी भरा था।

     उस चित्रकारी के बाद मेरा मन उदास था। स्कूल में भी रिसेस में टिफिन खाने का बिल्कुल भी मन नहीं हुआ। टिफिन वैसा ही छोड़ मैं नीचे खेलने चली गई। पर वो भी ठीक से न कर पाई। और कबड्डी खेलते खेलते मन उक्ता गया।

     दूसरे कोने में नौवीं कक्षा के कुछ स्टूडंट्स 'खो खो' खेल रहे थे। सिटिंग 'खो खो' के बारे में मैं अनजान न थी। पर ये स्टैंडिंग 'खो खो' की ओर मैं लालायित होती चली गई।

     "दीदी, मुझे भी इस खेल का भागीदार बनना है।" स्टैंडिंग खो खो खेल से आउट हुई एक दीदी से मैंने पूछा।

     और मेरी कद काठी, वो खंभे जैसी लंबाई देख वो मन ही मन कुछ गिनती करने लगीं। और फिर 4 अपनीं टीम की हैड गर्ल से इशारों में गुफ़्तगू करने लगीं। और अंततः मुझे आसानी से उनकीं टीम में हिस्सा मिल गया।

     मेरा उदास मन कुछ नया सीखने और उसके चलते अपने रेडियोग्राम को अपने ज़हन से निकाल बाहर करनें में जुट गई।

     स्कूल से सीखकर आये उस नए खेल 'स्टैंडिंग खो खो' को अपने मोहल्ले के फ्रेंड्स को सिखाने के लिए उतावली हुए जा रही थी।

     स्कूल से घर आते ही पहलेपहल मैंने अपना होमवर्क निपटा दिया। ड्रॉइंग कॉम्पिटिशन के चलते कुछ खास होमवर्क भी नहीं था। सो, वो जल्दी ही ख़त्म हो गया। फिर चाची की पर्मिशन लेकर मैं नीचे खेलने चली गई।

     'स्टैंडिंग खो खो' खेलने में आज मोहल्ले के सारे लड़के - लड़कियाँ मौजूद थे। दो टीम बनाने के बाद भी कुछ फ्रेंड्स बच गए थे। उन्हें एक्स्ट्रा में रख ख़ुदको टीम लीडर बनाने में काफ़ी मज़ा आया।

     दो घंटे से भी अधिक समय हो चला था। लेकिन, पहला ही गेम ख़त्म नहीं हुआ था। कि, चाची की चीख़ सुनाई दी। खेलने की मेरी मसरूफियत ने मुझे बहरा कर दिया था। हमेंशा की तरह।

     सुनयना ने मुझे झकझोरते हुए चाची की चीखों के बारे में बतलाया। मैं भागी भागी अपने फ्लैट की ओर लपकीं। लिफ्ट का इंतज़ार न करते हुए चार माले यूँही कूदती हुई चढ़ गई।

     मेरे घर के बाहर भीड़ जमा हो चुकी थी। सबको हटाकर घर के भीतर जाने लगीं। तो मुझे बच्चा समझकर हर एक ने मुझे भीतर जाने से रोकना चाहा।

     चाची के नाम की आवाज़ें देती हुई मैं भीतर गई। हॉल में ही जो मंज़र देखा वो देखने भर से मेरा भी कलेजा फटता चला गया।

     कलर टीवी को चाची के बैडरूम में रखने के पश्चात पुराने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी को बेचना बाकी था। जो कुछ वक्त से रेडियोग्राम के स्थान को कब्ज़ा किये घर में ही बैठा था।

     उसी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी की चोरी हो चुकी थी। और चाची खुद को लगी मार पर मरहम लगाने वाली मेरी माँ के सामने छाती पिट पिटकर रो रही थी।

     "जेठ जी मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे भाभी। मैंने उनके चहिते टीवी की देखभाल नहीं की।"

     माँ चाची की नादानियों पर पल्लू में अपना गोरा मुँह दबाए हँसे जा रहीं थीं। और चाची दहाड़े मार मारकर रोये जा रही थी।

     सोसायटी के लोगों को भी जब चाची के मुख से सत्य पता चला तो दरवाज़े पर खड़ी भीड़ अपनेआप ही छंटने लगी।

     चाची को ठीक देख मेरी जान में भी जान लौट आयीं। सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते जिस किसीके मुँह से जो अनापशनाप सुना था। उसके आधे भी कुछ न था।

     तब, स्कूल में सिखाये गए हिंदी के मुहावरे का अर्थ ज़ुबानी याद हो गया। उदाहरण समेत।

     'अक्ल के पीछे लट्ठ लिए फिरना- सदा मूर्खतापूर्ण बातें या काम करते रहना।'

     चाची ने तो वो 'शेर आया, शेर आया' जैसा माहौल बना रखा था।

     तक़दीर काफ़ी अच्छी थी कि, चाचू और पापा के आने से पूर्व भीड़् छंट गई। वरना, उस रात चाची के संग माँ को भी सारी रात सीढ़ियों पर गुज़ारनी पड़ती। पनिशमेंट के तौर पर।

     ब्लैक एंड व्हाइट टीवी की चोरी होने के कुछ वक्त बाद चाचू और चाची अलग रहने चले गए।

     और ब्लैक एंड व्हाइट टीवी की भरपाई चाचू ने ट्रांज़िस्टर गिफ्ट में देकर की।

     मेरा नया साथी - ट्रांज़िस्टर रेडियो!



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