VEENU AHUJA

Others

3.8  

VEENU AHUJA

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सफ़र

सफ़र

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आषाढ़ मास की उस चिपचिपाती शाम में हम हड़बड़ी में जैसे तैसे अन्तिम क्षणों में कानपुर जाने वाली मेमो ट्रेन में सवार हुए थे परन्तु और दिनों से अलग धक्का मुक्की व भीड़ न दे खकर मैंने राहत की सांस ली।

मैंने इधर उधर नज़र डाली। दायीं तरफ एक स्मार्ट गोरा युवा कान में हेडफोन लगाए अपनी मस्ती में खोया हुआ था। उसके ठीक सामने, एक छोटी लड़की अपनी मम्मी के मोबाइल में गेम खेलने में व्यस्त थी बीच बीच में एक लड़का जो सम्भवत: उस लड़की का बड़ा भाई था। माँ को कह रहा था - "मम्मी मोबाइल की बैटरी समाप्त हो जाएगी" तब उसकी माँ हाथ से इशारा करके कह रही थी "कोई बात नहीं।"

जहाँ जीवन में कई बार लड़कियाँ को उपेक्षा सहन करनी पड़ती है वहीं कहीं कहीं। कभी-कभी वे मां का अतिरिक्त प्यार संजो लेती है।

गला सूखा लगने पर मैंने बोतल से ज्यों ही पानी पिया, मेरे ठीक सामने बैठा बारह-तेरह साल का एक लड़का बोल पड़ा - दादी "पानी लाने दो यहीं नल है।" तो मैंने चौंक कर उस और देखा। हम जीवन में कई बार पास की चीजों को नजरंदाज। करके दूर की चीजों पर ध्यान केन्द्रित कर। देते हैं परन्तु वास्तव में हमारे इर्दगिर्द ऐसा बहुत कुछ घटित होता है जिसको हमें तवज्जो देनी चाहिए।

वह लड़का कुछ अलग सा था। अधमैली या मटमैली काले सफेद चौखाने वाली सिंथेटिक शर्ट और हफ्तों से पहनी नीली ग्रे जींस में श्यामवर्णी लड़का नया नया भ्रमर सा लग रहा था। उदासी, झुंझलाहट, क्रोध, उलझन के मिश्रित भाव उसके चेहरे पर परिलक्षित हो रहे थे। उसके ठीक सामने खिड़की के निकट मेरे बायीं ओर "झुर्रियों से भरे" थके चेहरे वाली "उम्रानुसार कुर्ता व पुराना सा शरारा पहने उसकी दादी बैठी थी। एक बार फिर उसने पानी लाने के लिए बोला तो दादी ने प्यार भरे लहज़े में उत्तर दिया, सलीम.. मेरे लाल नहीं नहीं, गाड़ी अभी चल देगी।" एक झटके के साथ वास्तव में गाड़ी ने स्पीड पकड़ ली फिर धीरे-धीरे रुक गयी। लखनऊ से ही विलंब से चलने के कारण। बारबार क्रांसिंग पर और सुपर फास्ट ट्रेनो को रास्ता देने की मजबूरी के चलते हर आधे घंटे पर गाड़ी की जैसे सॉस फूल जाती और वो विश्राम हेतु रुक-रुक जा रही थी। गाड़ी का रुक रुक कर चलना ' चलना और रुकना हम सभी की परेशानी का सबब बना हुआ था और सारे यात्री रेलवे विभाग। को जी भर कर कोस रहे थे। लेकिन गाड़ी रुकते ही उस लड़के की बेचैनी एकदम बढ़ जाती और मुझे उसकी मासूमियत पर छोटी सी हंसी आ जाती कि,अभी जिन्दगी के उसके अनुभव ताजा ताज़ा व कच्चे थे।

अचानक सामने बैठे दो व्यक्ति। दोनों खिड़कियां के बीच में छपे विज्ञापन पर बहस करने लगे जिस पर लिखा था, अनपढ़ को भी काम : वेतन १२००० से ४५००० यकायक सलीम उठा और विज्ञापन को फाड़ने लगा। दादी किसी अनिष्ट की आशंका से कांप उठी और पोते को डांटा। किंतु, वह तो एक दो तीन बार उठा कागज को थोड़ा फाड़ा और फिर बैठा, फिर फाड़ा बैठा, फाड़ा, बैठा साथ ही बड़बडाया । अब कोई बेवकूफ नहीं बनेगा। पोते की इस अनवरत क्रिया देख दादी भी आपे से बाहर हो गयीं और बदहवास सी बड़बड़ाने लगी - "या अल्लाह। कोई इसे रोके इस तरह भी कोई हरकत करता है। तुम्हारा क्या है? पड़ा रहता वहीं वो कागज जाओ, आज के बाद मैं तुम्हारे साथ नहीं आऊंगी" दादी को आपे से बाहर देख।

सलीम भी सहम गया। प्यार से बोला - "दादी, कुछ नहीं होगा। तुम खामख्वाह ही डरती हो, अब कुछ नहीं करूँगा... अच्छा पानी भर लाऊँ।" दादी ने फिर आँखें तरेरी। तभी झटके से गाड़ी चल दी, दादी पोते दोनों ने राहत की साँस ली।


वह एकदम शांत। निर्विकार भाव से बैठ गया मानो उसका सारा तनाव कागज के चिंदी चिंदी टुकड़ों के साथ उड़ कर काफूर हो गया था। उसके माथे की सिलवटें कुछ कम हो गयी थी, अंदर की उलझन को कुछ पल के लिए भूलकर वह वर्तमान में लौट आया था। "दादीजान नौ बजे तक पहुँच जाएंगे न ..पोते ने प्रश्न किया। "हाँ, बेटा" चाशनी में पगी आवाज में दादी बोली। ट्रेन अब चली है तो चलती रहेगी। सलीम स्वयं से बुदबुदाया " साढ़े आठ हो गया है। नौ बजे कानपुर पहुंच जाएगी।-- ट्रेन है कि हवाई जहाज ?" एक दिन तो पिक्चर देखने का मिलता है। शनिवार को आराम होता है। सन्डे की छुट्टी होती है लगता है आज पिक्चर छूट जाएगी हुअ...." मेरे चेहरे पर उसकी भोली बातें सुन स्मित मुस्कान फैल गयी। पर ये क्या ? गाड़ी फिर रुक गयी। सलीम ने दादी को कुछ इशारा किया तो दादी धीरे से बोली - "यही आगे.. आगे कर ले ना।" -- और वह ट्रेन से उतर गया। अंधेरे में भी दादी की आँखें पोते पर टिकी हुयी थी। पर वह नजर नहीं। आ रहा था। दादी ने आवाज लगाई। सलीम सलीम। कोई जवाब नहीं। वह आगे बढ़ गया था। दादी दबी दबी आवाज में चिल्लाई - 'ए भाई। कोई इस लड़के को दो थप्पड़ लगा दो..मेरी जान सुखाए जा रहा है --- --- अरे - रे..रे..यह तो गाड़ी चल दी थी और सलीम। वह नहीं आ पाया था। आसपास के लोग कुछ पल चौके। फिर निष्चेष्ट बैठे रहे दादी, खिड़की पर सिर रखकर घुटी घुटी आवाज में सलीम सलीम दोहरा रही थी। कुछ कहने को सूखे पपड़ी पड़े होंठ कंपकंपाए परंतु अनवरत, टपकते आंसुओं ने हिचकी के रूप में उन्हें वही रोक दिया।"

मैंने निराशा से टूटी पड़ी ट्रेन की जंजीर को देखा। पेट में उठ रही हौलन को नजरंदाज किया। कुछ ही देर के सफर में सलीम के प्रति उत्पन्न ममत्व घबराहट के रूप में अस्तित्व में आया था। मैं बाहर से शांत बैठी रही पता नहीं क्यों ये विश्वास था कि वह दूसरे डब्बे में जरूर चढ़ गया होगा।

ठीक, सात मिनट बाद सलीम हमारे सामने था। स्वभाव से शांत मेरे पति गौरव उस पर जोर से भड़क कर बोले - तुम्हें दादी की फिक्र नहीं है ? लेकिन वह बेबाकी से बोला "आपको क्या है?" मैंने धीरे से गौरव को सीट पर बैठाया और शांत रहने का संकेत किया।

तब तक समस्त यात्रियों की सहानुभूति दादी के साथ हो चुकी थी सहानुभूति की गरमाहट ने दादी के हृदय में जमी स्मृतियों के मोम को पिघला दिया था। उसने धीरे से अतीत के उढ़के किवाड़ को थोड़ा सा खोला और अनायास बोल पड़ी - भैया घर में एकलौता है, बाप हैं नहीं। हमारे लिए तो यह ही सब कुछ है। पर यह छोटे बच्चे की तरह मुझे हलकान किए जा रहा है। कुछ समझता ही नहीं और भी तो बच्चे हैं। फिर समय व जगह की नज़ाकत को समझते हुए दादी ने अतीत की स्मृतियों को अमूल्य धरोहर की तरह संदूकची में बंद कर ताला लगा दिया।

ट्रेन एक बार फिर रुकी तो दादी ने दस रुपए देकर कुछ खाने के लिए लेने के लिए कहा। परन्तु सलीम नाराज़ हो चुका था, ठनक कर उसने इनकार में सिर हिला दिया गाड़ी चल दी थी।

तब, दादी ने दुपट्टे के खोंचे में बंधे अनरसे निकाले जो उसने बड़े शौक से खाए। दादी की आंख नम हो चली थी मानो तपते रेगिस्तान में कुछ बूंदे पानी की पड़ गयी थी जिसकी सौंधी खुशबू से ट्रेन का पूरा डब्बा महक उठा था।

सलीम ने दादी की गोदी में सिर रख दिया था। "क्यों हैरान करता है ? तुम्हें क्या पता मेरी जान चली गयी थी, चंद दिनों की मेहमान इन सांसों की कुछ तो कद्र करो" दादी बोली । सलीम चेहरे पर ढेरों प्यार समेट कर बोला। "अच्छा दादी अब परेशान नहीं करूंगा। सच्ची दादी सच्ची अब गुस्सा न करो।" दादी ने झूठा गुस्सा दिखाया - "नहीं घर चलो, तब तुम्हें पता चलेगा। तुम्हारे साथ अब मैं कभी नहीं आऊंगी।"

सलीम फिर ठनक गया। "तुम्हें लाएगा कौन ? मैं अकेले ही आ जाऊंगा। लखनऊ से कानपुर दूर थोड़े ही है।"

गाड़ी रुकते ही वह दादी से रुपए लेकर समोसे ले आया था, अब दादी छोटे बच्चे की भांति रूठ चुकी थी और समोसा नहीं खा रही थीं। सलीम कहाँ माननेवाला था, उसने ज़बरदस्ती दादी के हाथ में समोसा थमा दिया। दादी बड़े प्यार से पोते का दिया समोसा पोपले मुंह से धीरे-धीरे खाने लगी।


ट्रेन का सफ़र बदस्तूर जारी था बाहर कोविड काल के लॉक डाउन सा अंधकार - निराशा पसरी हुयी थी। अंदर अंतस् सा हाहाकार मचा हुआ था, मौसम की उमस शरीर को और अधिक थका रही थी।

"दादी पानी हलक सूखा जा रहा है, सलीम बोला।" मैंने पानी की बोतल उसकी ओर बढ़ा दी। दादी को राहत मिली और बोली, "अब चैन है?" सलीम ने मुंह बनाया - थोड़ा सा तो था।

सलीम आज की पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहा था, सर्वत्र पानी अर्थात् जिजीविषा कम है, आकांक्षाए उबाल मारती है परन्तु बहुत कम उपलब्धि से ही संतुष्ट होना पड़ता है, जिससे थकन जीवन भर बनी रहती है। असंतुष्टि का भाव स्वभाव का स्थाई भाव बन जाता है।

सलीम फिर दादी की गोदी में सिर रखकर लेट गया उसने एक हाथ से खिड़की व दूसरे से दादी को पकड़ रखा था। दादी ऊंगलियों के पोरों से उसके बाल सहलाते सहलाते सो गयी। सलीम थोड़ी थोड़ी देर में नीचे के होंठ को कुछ फुलाकर खर्राटे की भू भू सी आवाज निकाल रहा था कभी कभी हल्की हंसी उसके चेहरे पर नाचने लगती, कभी तनाव से दोनों भौहें एक दूसरे को लपकने हेतु नजदीक आ जाती। संघर्ष निराशा, सुख - एक पूरी जिन्दगी वह सपने। में जी रहा था। वहीं दादी का चेहरा नींद में और भी सौम्य व शान्त हो उठा था। खिड़की से ट्रेन मे प्रवेश करती हवा उनके दोरंगी बालों से खेल खेल कर लौट रही थी। कहीं कोई अवसाद संघर्ष तनाव न था, असीम शांति का अनुभव। संतुष्टि का अनमोल भाव उन्हें देवीतुल्य बना रहा था।

कर्मठता व नींद संक्रामक रोग की तरह होते है। दादी पोते को निंद्रा में लीन देख मैं भी उबासियाँ लेने लगी थी और कब झपकी लग गयी। मुझे पता ही नहीं चला।

अचानक चाय ले लो चाय। गर्मचाय कानपुर... कानपुर...की आवाज से मैं हड़बड़ा कर खड़ी हो गयी। सलीम धीरे से उठा। उसने दादी को आवाज लगायी - "दादी - दादी उठो कानपुर आ गया।" परन्तु दादी तो जीवन का सफ़र तय कर चुकी थी, ट्रेन लगभग खाली हो चुकी थी। अब भीतर बाहर सब शान्त था - - - केवल उस मासूम सलीम की आवाज़ दूर दूर तक सुनाई दे रही थी --- - - दादी दादी - दादी - - - अब मैं कभी तंग नहीं करूंगा। दादी।।- -। I


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