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Sadhana Mishra samishra

Others

4.8  

Sadhana Mishra samishra

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ढ़ोल, गंवार, शुद्र, पशु....नारी

ढ़ोल, गंवार, शुद्र, पशु....नारी

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गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने राम चरित मानस में यह दोहा क्या लिख गए, कुछ लोगों को बवाल काटने का मौका दे गए। जिस तरह लोगों ने इस अप्रतिम रचना को अपने मन में , अपनी आस्था से जोड़कर अपने जीवन में, अपने दिल में उतार लिया। उसी तरह आजकल बहुत से लोगों ने सिर्फ इस दोहे को अपने स्वार्थ में उतार लिया। कबीर कह तो गए हैं....

जिन खोजा तिन पांइयाँ, गहरे पानी पैठ

ऐसे समझा जा सकता है कि बहुतेरे गोताखोर गहरे समुद्र में डुबकी लगाते हैं तो वे मोती खोज लाते हैं, वहीं जिनके हाथ में रेत ही आती हैं, वे मोती की गुणवत्ता पर ही सवाल खड़े करने लगते है।

यही हाल इस दोहे का भी है। बहुतेरों को रामचरित मानस में श्रद्धा, भक्ति, संबंधों के गहरे प्रतिमान, उच्चतम जीवन आदर्श मिले तो कुछ लोगों को एकमात्र यह दोहा ही हाथ लगा। और तबसे वे विध्वंस कारी इस दोहे को भुनाकर समाज में वैमनस्य की खाई खोदने के काम में लग गए हैं। क्यों? क्योंकि इससे उनके स्वार्थ सधते है।

भारतीय राजनीति में बहुत समय से लोग इस दोहे को भुना-भुनाकर रंक से राजा बन गए हैं ।

वे एक वर्ग विशेष के राजनेता बन गए। समाज को दो वर्गों में बाँट दिया। अपनी अरबों की दौलत बना ली। राजनीति में अपनी एक वर्ग विशेष में अपनी पैठ बना ली है। और यह सिलसिला खत्म हुआ नहीं है, अभी भी बहुत से लोग इस दोहे को भुनाने की फिराक में लगे हुए हैं, लगे रहेंगे, जब तक लोंगों को बरगलाया जा सकता है, बरगलाते रहेंगे !

वो कहा भी गया है न कि मूढ़े-मूढ़े मति भिन्ना।

भिन्न- भिन्न मुंडी है, भिन्न- भिन्न मत है, उलझाये रहो इसकी अलग-अलग व्याख्या करके, भाव न पकड़ो,

शब्दों को पकड़ो, और द्विज् जनों को कोसते रहो।

बहुत विप्लव मचा हुआ है भारतीय समाज में इस दोहे को लेकर, तो अपने विचार मै भी रख ही देना चाहती हूँ। जैसे सभी इस बहती गंगा मे हाथ धोकर ऊंचे सोपान चढ़ ही गए है, मुझे भी उम्मीद है कि मेरा भी कुछ उद्धार हो ही जाएगा।

अनुभव तो यही बताता है कि मैं इसके पक्ष में कुछ लिखूंगी, पत्थर बाज आऐंगे, दस-बीस पत्थर मारेंगे।

मुझे नारी और शुद्र के बरखिलाफ बताऐंगे और मेरे खिलाफ एक आंदोलन छेड़ देंगे कि यह विध्वंसक तत्व है, बैन करो, बैन करो !!

कुछ स्त्री स्वतंत्रता की पक्षधर देवियाँ प्रगट होयेंगी, पानी

पी-पी पीकर कोसेंगी। मेरे स्त्री होने पर क्षोभ प्रगट करेंगी,

गुगल पर सर्च करके मुझे मेरी अज्ञानता दूर करने की सलाह देंगी। मेरे खिलाफ ब्लाॅग लिखेंगी। मुझ मूढ़मति की अज्ञानता को कोसेंगी और अपने विचारों को महिमा- मंड़ित करेंगी।

कुछ लोग उनके पक्ष मे खड़े होंगे, वही लोग, जिनके खिलाफ वे मोर्चा निकालती हैं, और फिर उन्हीं के कंधों पर सिर रखकर रोतीं हैं ?

मैं किसी बने-बनाए वाद पर विश्वास नहीं करती हूँ ।

न ही किसी का अंध समर्थन। सिर्फ अपने अनुभव पर कहती हूँ। और हाँ, विद्वान मै अपने को कभी नहीं मानती हूँ । साधारण जन हूँ, साधारण बुद्धि और साधारण भाषा में ही बात करती हूँ ।

स्त्री हूँ फिर भी कहती हूँ कि हाँ गोस्वामी तुलसीदास जी का यह दोहा सत्य है कि.....

ढोल, गँवार, शुद्र, पशु नारी

ये सब ताड़न के अधिकारी

क्यों ?

बेहतर तो यही होगा कि क्रमवार मैं अपनी बात को स्पष्ट करूँ- -

1- इस दोहे में पहला शब्द आया है ढ़ोल, बताओ तो भला कभी कोई ढोल बिना पीटे कोई आवाज किया है ? नहीं करता, वह बिना पिटे कभी बजा है, नही बजता।ढोल को बजाना है तो पीटना ही पड़ेगा, जितना पीटोगे,उतना बजेगा। जोर से पीटोगे तो बेसुरा बजेगा, प्यार से थपकी देकर पीटोगे तो धुन में बजेगा। पर बिना पीटे, नहीं बजने वाला।

2- गँवार या मुर्ख आदमी कभी भी तर्क संगत बात नहीं करता, आसानी से कोई बात नहीं मानता, वह तब तक अपनो बात पर अड़ा रहता है, जब तक उसे ताड़ना न मिले। कहा भी गया है न कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते।

यह सिर्फ मुहावरा ही नहीं है, मुहावरे भी सदियों के अनुभव पर ही बनते हैं, अनायास नही बनते। मूर्ख, गंवार को समझा -समझाकर हार जाओगे, वह नहीं समझेगा,

बिना ठोंके-पीटे राह पर नहीं आयेगा ।

3- शुद्र यानी वह वर्ग जो शुल्क लेकर सेवा करता है। आधुनिक समय में वह सारे कार्य जो शुल्क लेकर किया जाता है, वह सेवा कहलाती है।

ये कमबख्त वामपंथी, इस शुद्र शब्द की परिभाषा ही बिगाड़ दिए हैं। इसे उन्होंने अपने पक्ष में, इतना तोड़ा-मरोड़ा कि शुद्र शब्द का अर्थ ही बदल दिया है।

शुद्र को एक सीमित अर्थ में परिभाषित कर दिया है।

शुद्र माने दलित कर दिया है, एक बहुत सीमित दायरे में बाँध दिया है। क्योंकि व्यापक अर्थ में इस पर कोई बवाल नहीं मचा सकते है ?

वे कभी आम जनमानस को कभी नहीं बताना चाहेंगे कि ये दोनों शब्द अलग-अलग है या कि उन्होंने ने ही इस वेदयुगीन सार्थक शब्द को जातीय वर्गीकृत कर दिया है।

जो शुल्क लेकर सेवा करे, वह शुद्र होता है।

और आजकल तो शुद्रों की बहुतायत हो गयी है। क्योंकि सभी शुल्क लेते है, तभी काम करते हैं। और ये वर्ग बहुतायत में काम के प्रति इमान दार नहीं होता है।

जब तक आप पीछे नहीं पडेंगे, वह ज्यादातर टाल-मटोल ही करते रहेंगे।

लोग स्वेच्छा से काम करते नहीं हैं, काम करवाना पड़ता है, पीछे पड़-पड़कर करवाना पड़ता है।

अगर आप सभी कह दें कि कहीं होता देखा है आपने, भारत के संदर्भ में....

कि हमने तो पैसा दे दिया, और उसने अपना काम ईमान दारी से कर दिया,

कितने लोग इसके पक्षधर हैं, कोई नहीं करेगा ?

क्योंकि हमारे अनुभव इसकी पुष्टि नहीं करते है।

हम इस बात के इतने आदी हो चुके हैं कि अगर किसी ने अपनी ड्यूटी ईमानदारी से निभा भर दे, तो तारीफों के पुल बांधने लगते हैं, अखबारों की हेड-लाइन बनाते हैं, इंटरव्यू लेते हैं, टीवी पर इसको अजूबा मानकर महिमा- मंडित करते हैं। यानी स्पष्ट हैं कि यह सामान्य प्रक्रिया नहीं है ।

और गोस्वामी जी ने एक दोहे में जरा इनकी सच्चाई क्या लिख दी, उनके पीछे डंडे लेकर पड़े रहते हैं ?

हम शुल्क भी चुकाते है ,और निगरानी भी करते रहते है कि काम तो ढंग से पूरा हो।

4- पशु को लेकर कहीं बेचैनी नहीं है क्यो ?

क्योंकि वह तो मूक है, वह अपने प्रति होने वाले अत्याचार के खिलाफ कहाँ आवाज उठा सकता है। उसके पास वह बुद्धि नहीं है कि वह एकत्रित होकर मानव के अत्याचारों के प्रति क्रांति कर सके। इसलिए ही यहाँ गोस्वामी जी बच गये हैं वरना पशु को लेकर भी वह कटघरे में खड़े रहते ?

5 - अब रही स्त्री की बात, मै पूर्णतः मानती हूँ कि स्त्री से बढ़कर किसी के पास ऊर्जा नहीं होती है, बुद्धि मानी नहीं

होती है, सहन शीलता नहीं होती है।वह सर्वगुण संपन्न है। स्त्री ही वह ताकत है जो संसार बनाती है, चलाती है।

जिस स्त्री में इतनी उर्जा है,अगर वह स्वेच्छा- चारिणी हो जाये तो ? सब कुछ पलट सकता है, अतः कई जगह, उसकी उर्जा को, उसे सीमित करने की भी कोशिश की गई है। अगर इस तथ्य को नकारने की कोशिश की जाए तो सत्य को नकारना होगा।

स्त्री ही दुर्गा है, स्त्री ही सीता है, वही स्त्री शूर्पनखा है, वही स्त्री कैकेई है,वही स्त्री मंथरा है।

रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्या बाई है। दुर्गावती है, रानी पद्मनी हैं । मीरा है, सीता है, राधा है।

पर वही सनी .... भी है, क्षमा करें।

वही सास भी है, और वही बहू भी है, रोज ही स्त्री, स्त्री को कोस रही है। वही स्त्री को केंद्र बिंदु पर रखकर बड़ी-बड़ी कहानियाँ लिख रही है। वह अपने से कमतर का शोषण कर रही है। वह अपनी ही जाति के खिलाफ तलवार भांज रही है। पर अपने को नहीं कोस रही है ? कोस रही है तो तुलसी दास जी के दोहे को, वही जिम्मेदार हैं ?

वाह भई वाह !!

तुलसी दास कह गये तो बुरे, हम कहे तो अच्छे !!

बहुत गुस्सा आ रहा होगा आपको मेरी बात पर, लेकिन बड़े-बड़े साम्राज्य ढह गये इस स्त्री के कारण।

महाभारत हो गया द्रौपदी के कारण ...

उसका दंभ इतना बड़ा हो गया था, कि सालों- साल निर्वासन झेलने वाले पांड़वों को युद्ध की आग में उतरना ही पड़ा, तमाम कष्ट भी युद्ध न करवा सके, और द्रौपदी के हठ ने करवा दिया, और रच गया एक महाभारत !

मदमस्त हाथी की तरहा होती है स्त्री, ताकतवर, वह पुरुष की ताकत पर मानसिक हुकूमत करती है।

ताकत है स्त्री में अपनी बात मनवाने की, ताकत है अपनी मन मर्जी कर जाने की।

सब तिनके की तरह बहते हैं, इसके सामने !

इसलिए अंकुश की बात कही जाती है। जिस दिन औरत अपने पर आ जाती है, कोई उसकी राह नहीं रोक सकता, इसे स्त्री प्रवृत्ति को स्त्री से ज्यादा कोई नहीं जानता।

सिर्फ स्त्री ही स्त्री को काबू कर सकती है, किसी पुरुष में

वह शक्ति नहीं कि वह स्त्री को रोक सके !

यह मुहावरा भी फिट बैठता है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है,

कहा तो यह भी जाता है कि भगवान भी हारे है, स्त्री को बनाकर !

और एक सबसे महत्वपूर्ण बात कि गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरित मानस अवधी भाषा में लिखी गई है। और अवधी में ताड़न का शाब्दिक अर्थ निगरानी करना होता है। हिन्दी भाषा में ताड़न का अर्थ

ठोंक-पीटकर, नियम कानून बनाकर, लक्ष्मण रेखा खींच कर काबू में रखना होता है।

पर हमें अर्थ का अनर्थ करना आता है। पूरे मानस में स्त्री की वंदना की गई है, पूजा की गई है। पूरा मानस भरा पड़ा है स्त्री के माहत्मय से। स्त्री की गरिमा के महिमामंडन से।

पर इससे हमें कुछ लेना देना नहीं है, हमें सिर्फ यही दोहा चाहिए क्योंकि यही हमारी पकड़ में है।

अवधी और हिन्दी के अंतर से यही घपला किया जा सकता है। और इस कदर किया जा रहा है कि वह पानी ही नहीं मिल रहा है कि इस आग को बुझाया जा सके।

जो समाज में फैली इस अराजकता से घबरा रहे है, वह निरंतर इस दोहे को रफू करने की कोशिश कर रहे है कि यह प्रिंटिंग की गलती है। पहले यह रारि शब्द था, जो कालांतर में नारी हो गया है।

क्यों ? यह प्रयास करना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि यह एक यह एक ब्राह्मण के कलम से लिखा गया है। अगर यही दोहा संत कबीर, रैदास लिख गये होते तो समाज -सुधार के अंतर्गत आ जाता ?

समाज अच्छे-बुरे स्वभाव के व्यक्तित्व का समुच्चय है। न हर कोई बहुत अच्छा हो सकता है न कोई बहुत बुरा।

हाँ, व्याख्या अपने मंशा के मुताबिक की जा सकती है।

जब सिर्फ शाब्दिक अर्थ ही पकड़ा जाता है, वही अर्थ के अनर्थ की जड़ हो जाता है।

यह ठीक वैसी ही बात है, जैसे सीता के अग्नि- प्रवेश को कालांतर में अग्नि- परीक्षा का नाम दे दिया और जिसका बवाल खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है।

यही बात गोस्वामी तुलसीदास जी के इस दोहे की है। अर्थ में अनर्थ निकालना ही हमें आता है। एक इस शब्द को पकड़कर बैठ गए !!

पूरे रामायण में नत मस्तक हो-होकर स्त्री महिमा गाई। वंदन किया,पूजन किया, उसकी बड़ाई तो किसी ने न की। इसी दोहे को पकड़ लिया, क्योंकि यह विध्वंस -कारीयों को सूट करता है, अपना विप्लव फैलाने में ?

वाह-वाह-वाह !


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