ईदी
ईदी


रूपहली सी खूबसूरत रोशनी उसके चेहरे को रौशन कर रही थी और वो दुनिया के हर रंज़-ओ-ग़म से दूर अपनी ही महफ़िल में मसरूफ थी। अम्मो न जाने कितनी बार उसे जगाने की कोशिश करते-करते पूरे मुहल्ले को सर पर उठा चुकी थीं ‘‘थोड़ी ही देर में चॉंद निकल आयेगा, कुछ भी तैयारी नहीं है, ये कोई वक्त है सोने का?" उन्हें क्या पता था कि पिछले साल दर साल यूं चुपचाप उसकी आंखों में जो ख़्वाब आता था वो उसे मुट्ठी में ऐसे जकड़ लेना चाहती थी कि कोई उसे चुरा न सके। वो अम्मू को कैसे बताये कि उसका अकेलापन कितने ज़ख्म देता था जब बाकियों को वो आपस में मिलते-जुलते हंसी खुशी बातें करते देखती। उसका मन ज़ार-जार रो उठता लेकिन हिम्मत ऐसी थी कि अम्मू के सिवा किसी के सामने पलकें तक नहीं भीगती थीं। बस दूसरों को परिवार सहित आपस में यूं देखकर दिल में हसरतें पाल लेती कि बड़े भाई ईद में पास होते कोई छोटी बहन-या भाई उससे भी ईदी मांगते। मुहल्लेवाले जब उसके अकेलेपन का मज़ाक उड़ाते और कहते कि अपनों से ईदी मिलना जहां दुआओं का मिलना है तो ईदी देना सबाब का काम है तो उसका मन करता कि वह कहीं चली जाये लेकिन मासूम मन तो सुनकर हर चीज़ को अनसुना करना चाहता है और नई उड़ान पर खुद के पंखों के सहारे निकल जाता है। ऐसा ही उसके साथ भी होता लेकिन ज़हन से बात निकलती नहीं थी, बस चेहरा बयां नहीं करता था।
जब से उसने लक्ष्मी को देखा था (उस अनजान को लक्ष्मी का नाम उसके आस-पास वालों ने दिया था)। न जाने कैसा लगाव उसे खींच रहा था और वो अम्मू से अपनी मुराद पूरी करने के लिए कितनी मिन्नतें कर चुकी थी। हर बार अम्मू उसे समझातीं कि जैसे ही उसे अपनी चीजें खान-पान सब उसे बांटना पड़ेगा तो उसकी चाहत का सारा बुखार उतर जायेगा।
ईद का चाँद अब निकलने ही वाला था, जश्न की तैयारी उसके कानों में अजीब सी खुनकी घोल रही थी। एक तरफ अकेलेपन की दहशत थी तो दूसरी तरफ चाँद देख पाने की हसरत भी। इन्हीं अधमुदी आंखों और नींद के झोंके के बीच से आती आवाज़ ने उसे थोड़ा चौकन्ना किया ‘‘फलक देखो तो कौन आया है’’ आवाज़ जरूर अम्मू की थी जो शायद उसे उठाने के लिए पुरज़ोर कोशिश कर लेना चाहती थीं। उसने अपनी नन्ही हथेलियों के बीच से मासूम सी आँखें आधी खोलीं तो सामने अपने भाईजान के साथ गहरे पीले और नीले रंग से बने शरारे में सजी नन्ही सी लक्ष्मी उसे टुकुर-टुकुर ताक रही थी। और भाई!उसे कह रहे थे ‘‘फलक ईद के चाँद के साथ ही तेरे लिए तेरी ईदी लेकर आया हूं, खेलेगी अपनी छोटी बहन के साथ? फलक खुशी के मारे पलंग से कूद कर अम्मू से लिपट गई! आज उसे ईदी की दुआयें और सबाब दोनों मिल रहे थे। चॉंद की लकीर बादलों से झांक रही थी जिसने नन्हीं फलक के मन को रौशन कर दिया था और उसके दिल की खुशी अम्मू उसकी सितारों सी झिलमिलाती आँखों में देख सकती थीं जहां बस प्यार ही प्यार था। अब हर बरस उसके पास भी कोई होगा जो उससे ईदी मांग सकेगा और जिसके लिए वह अपनी गुल्लक के पैसे खर्च करेगी। मासूम चाहतें किसी नाम और जाति, धर्म की मोहताज़ नहीं होतीं मासूमियत तो बस रिश्ते बनाती है, मुहब्बत के रिश्ते।