Priyanka Gupta

Others

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हरी बनारसी साड़ी

हरी बनारसी साड़ी

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"अरे दीदी, अम्माजी को यह साड़ी दी थी मैंने।" मँझली भाभी ने एक हरी बनारसी साड़ी दिखाते हुए कहा। 

"यह साड़ी तो एकदम कोरी है। माँ ने पहनी ही नहीं। इसपर तो फॉल भी नहीं लगी हुई है।" मैंने साड़ी हाथ में लेते हुए कहा। 

"हाँ दीदी, अम्माजी ने यह साड़ी बड़ी भाभीजी को दे दी थी। जैसे ही मुझे पता लगा कि उन्होंने भाभीजी को दे दी है, मैंने वहाँ से मँगवा ली थी। भाभी जी ने भी पहनी नहीं थी। बाद में तो आप जानते ही हो, अम्माजी ने नयी साड़ियाँ पहनना ही बंद कर दिया था।" मँझली भाभी अपनी रौ में बोलती जा रही थी। 

भाभी की बात सुनी -अनसुनी करती, मैं अतीत के गलियारों में पहुँच गयी थी। २ भाइयों की इकलौती बहिन मैं अपनी माँ की बड़ी लाड़ली थी। लेकिन मेरी माँ लाड़ के साथ अनुशासन पसन्द भी बहुत थी। वह कहती थीं कि, "खाने -पहनने का लाड़, लेकिन काम के मामले में कोई लाड़ नहीं।" माँ मुझे हमेशा उस समय के हिसाब से अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनाती थी। 

मेरी शादी में भी माँ ने मुझे अच्छी से अच्छी साड़ियां हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति के अनुरूप दिलवाई भी थी। लेकिन मेरे पास कोई बनारसी साड़ी नहीं थी। यह वह दौर था जब, जब अपने पति और ससुराल से कुछ चीज़ माँगने में झिझक होती थी, फिर मेरी नयी -नयी शादी हुई थी तो मैं अपने पति से नहीं कह सकती थी कि मुझे एक बनारसी साड़ी दिलवा दो। मैंने एक -दो बार माँ से कहा कि, "माँ, मुझे एक बनारसी साड़ी चाहिए। "

मेरी शादी के कुछ समय बाद ही मंझले भैया की शादी थी। तब माँ ने मुझे टमाटरी रंग की एक बनारसी साड़ी दिलवा दी थी। मँझली भाभी के गृहप्रवेश के बाद उनके गौने का सूटकेस खोला गया। भाभी ने मुझे एक सूटकेस खोलने के नेग में और एक गौने में साड़ी दी। फिर भाभी ने हरी बनारसी साड़ी माँ को दी। माँ की वह साड़ी मुझे बहुत अच्छी लगी थी, लेकिन मौके की नज़ाकत भाँपकर मैंने कुछ नहीं कहा। 

वैसे भी माँ को जो भी साड़ियाँ तोहफों में मिलती थी, माँ मुझे वह सब साड़ियाँ दिखाकर उनमें से अपनी पसंद की साड़ियाँ ले लेने को बोलती थी। मैंने सोचा था कि जब माँ मुझे यह साड़ी दिखाएगी तब मैं माँ से मांग लूँगी। लेकिन माँ ने मुझे कभी वह हरी बनारसी साड़ी नहीं दिखाई। 

मैंने भी माँ से कभी नहीं पूछा, लेकिन वह हरी साड़ी कहीं न कहीं मेरे जेहन में रह गयी थी। और आज माँ के मुझसे इतनी दूर चले जाने के बाद वह साड़ी यकायक सामने आ गयी थी। 

"अरे दीदी, क्या सोचने लग गयी ? आपको पसंद है ये साड़ी तो आप ले लो। अम्माजी की निशानी है। "मँझली भाभी की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी। 

"हां भाभी, अब तो माँ की बस यादें ही तो हैं। माँ की यह साड़ी दे दो।" मैंने आँखों के गीले हो गये कोरों को पोंछते हुए कहा। 

"दीदी, दिल छोटा नहीं करते।" मँझली भाभी ने साड़ी पकड़ाते हुए कहा। 

"एक माँ का दिल अपने बच्चे की हर छोटी से छोटी ख़्वाहिश को जान लेता। माँ जाने के बाद भी मेरी एक अधूरी ख़्वाहिश को पूरा कर गयी।" अपने दोनों हाथों में हरी बनारसी साड़ी लिए मैं सोच रही थी। 


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