Ira Johri

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हमारा ननिहाल

हमारा ननिहाल

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ननिहाल यानी नाना नानी का घर ।जिसका नाम लेते ही जीवन के अस्सी दशक पार करने पर भी माँ के चेहरे पर आई रौनक देखते ही बनती है ।हलांकि लम्बे समय से उनका वहाँ जाना ही नहीं हो पाया है ।उनके माता पिता यानी हमारे नाना नानी जिन्हें हम सब बच्चे भी बड़ों की देखा देखी अम्मा बाबू ही कहते थे वो भी अब हम सबके मध्य नहीं हैं । वहाँ जाते ही माँ के चेहरे पर अनोखी खुशी छा जाती थी ।आज न जाने क्यूँ अचानक ही भूली बिसरी यादों नें दिल के दरवाजे पर दस्तक दे कर बहुत कुछ याद दिला दिया।

    पतली सी पगडंडी से गुज़र कर जहाँ राह बन्द होती है वहीं आदमकद लकड़ी का दरवाज़ा न छोटा और न ही बहुत बड़ा । अन्दर घुसते ही कच्ची मिट्टी का बड़ा सा आँगन जहाँ बीच का भाग छोड़ दीवार के किनारे बनी चौड़ी सी क्यारी जहाँ हरियाली नें अपना साम्राज्य फैला रखा था ।एक तरफ गुसलखाना व शौचालय बने हुये थे जिसका प्रयोग घर के वाह्य भाग में बने अतिथिगृह में ठहरने वाले बाहरी लोग करते थे ।तो दूसरी तरफ एक और लकड़ी का बना दरवाजा था जो गाय घर को घर के अन्दर से आने पर बाहरी आँगन से जोड़ता था। गाय घर भी इतना बड़ा था कि आज के समय में महानगरों का एक चार कमरों वाला फ्लैट पूरा समा जाये ।

अब चलते हैं गाय घर से घर के मुख्य द्वार की तरफ जिसका भारी भरकम दरवाजा महीन नक्काशी के साथ बना था और साथ ही उसमें भारी भरकम सांकल भी लगी हुईं थी।उसको हिलाना आसान न था ।गाय घर और घर के भारी भरकम दरवाजे के मध्य ही एक तरफ अतिथि गृह था जहाँ दूर दराज़ गाँव से आने वाले मुवक्किल व ग्रामीण जन ठहरा करते थे ।यह एक दो मंजिला ककइया ईटों से बनी दो मंजिला इमारत थी जिसमें एक तरफ पतला संकरा जीना भी बना था।यह ऊपरी मंजिल में अन्दर से मुख्य इमारत से भी जुड़ी हुई थी।पहले के समय में शौचालय घर के बाहरी हिस्से में बना करते थे जबकि गुसलख़ाना यानी स्नानघर भीतर हुआ करते थे।

तो भारी भरकम दरवाजे के भीतर छोटे से बरामदे यानी बरोठे को पार करते ही एक और दरवाज़े को पार कर दिखाई पड़ता है बड़ा सा आँगन जिसके एक तरफ तो बड़ा सा शतरंज के चौंखाने के रंगों से रंगा बना बड़ा सा बरामदा दिखता है जिसके दोनो तरफ दो भारी दरवाजे व सामने पहले तीन बड़े बड़े दर और फिर अन्दर तीन और शीशम की लकड़ी के दरवाजे जिसके अन्दर घुसते ही पता चलता है कि दरवाजे भले ही तीन है पर भीतर से वह एक ही बड़ा सा कमरा है जिसे मढ़ा कहते हैं ।

अन्दर प्रवेश करते ही एक तरफ और लकड़ी का दरवाज़ा दिखता है जिसके अन्दर हमेंशा अन्धेरा पसरा रहता है । यहाँ सभी बक्से यानी कपड़े लत्ते रहते हैं बच्चे यहाँ जाने से डरते हैं जबकि गृहस्वामिनी अन्धेरे में भी हर सामान पर कुशलता से अपनी पैठ बनाये रखतीं ।

इसी कमरे में भीतर की तरफ ही दो दरवाजों के मध्य की दीवार पर दो अलमारियाँ भी विद्यमान हैं ।जिसमें नीचे के खाने में सामान रखने के लिये दीवार के अन्दर गहराई में हाथ डालना पड़ता है । सुविधानुसार इस खाने में चूरन ,मसाले आदि की लम्बी बोतले ही रखी जातीं जो सुरक्षित भी रहतीं ।

कमरे के पीछे वाली दीवाल आदमी समा जाय इतनी चौड़ी थी जहाँ ऊपर की ओर हवा व रोशनी आने के लिये रौशनदान भी बने थे ।

एक तरफ कोठरी तो दूसरी तरफ बड़ी सी अलमारी थी जो समाचार पत्र व पत्रिकाओं से भरी रहती थी यदा-कदा उपन्यास भी वहाँ पढ़ने के लिए मिल जाया करते थे ।

बरामदे के दोनों तरफ जो दो दरवाजे थे उनमें एक तरफ तो छोटी सी कोठरी थी जो इतनी बड़ी थी कि उसमें आज के समय का हमारा रसोईघर समा जाये ।तो दूसरी तरफ के दरवाज़े के भीतर एक और दर वाला बड़ा सा अन्नगृह था। यह भी अन्दर से अन्धेरा होने के कारण बच्चे अन्दर जाने में भय खाते थे ।

यह तो था उस चौकोर आँगन के एक तरफ का वर्णन ।अब चलते हैं आँगन के दूसरी तरफ ।इधर भी एक बड़ा सा कमरा जो छोटे और बड़े दो भागों में बंटा हुआ था ।बड़े भाग की तरफ एक दरवाजा था जो हमेशा बन्द रहता था इसके अन्दर अन्धेरे को चीरती रौशनदान से आती रोशनी को बच्चे बन्द दरवाजे की झिर्री से झाँक कर देखा करते ।भूतिया कमरा कह कर डर का साम्राज्य फैलाते ।हालाँकि वर्षों बाद उस घर की अगली पीढ़ी के सबसे छोटे सदस्यों नें माता पिता के पीछे उसका द्वार खोल उसमें प्रवेश कर डर पर विजय पा ही ली ।

  इस कमरे से लगा बरौठा यानी बरामदे सा बड़ा कमरा इसी में एक तरफ बड़ी सी लकड़ी की चौकी पड़ी होती थी जिस पर बैठ कर बाबू पूजा किया करते थे ।और साथ ही जो दरवाज़ा आँगन की तरफ खुलता था वहीं एक बड़ी सी हौदिया थी जिसमें अक्सर हम बच्चे कूद कूद कर नहाया करते थे या फिर गर्मी के मौसम में तरबूज खीरा आदि फल उसी में डाल कर ठंडे किये जाते थे ।

प्रवेश द्वार के ठीक सामने ही चौकोर आँगन पार करते ही बड़ी सी रसोई थी जो दो भागों में बंटी हुई थी एक भाग के चूल्हे पर सुबह भोजन पकाया जाता था तो दूसरी तरफ संध्याकाल व रात्रि कालीन भोजन पकता था। और भोज की भी यह विशेषता थी कि कुछ व्यंजन दिन में पकाये जाते थे तो कुछ रात में ही पकाये जाते थे जैसे मुझे याद है काली दालें रात में ही प्रमुखता से पकायी जातीं थीं ।

रसोई से ही लगी हुई एक मीठे पानी की कुइयाँ भी थी पहले के समय में उधर घरों के पलों में आम तौर पर खारा पानी ही आता था।मीठा पानी भोजन पकाने और पीने में प्रयोग किया जाता था।

बदलते समय के साथ आज वहाँ भी बहुत परिवर्तन हो गये हैं पर आज भी वहाँ की बातें मन में एक मीठी सी लहर छोड़ जाती है साथ ही परिस्थितियोंवश वहाँ जा न पाने की कसक मन में हिलोरे लेने लगती है । 


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