Sarita Maurya

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गिरगिटिया गधा

गिरगिटिया गधा

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बच्चों की दो पुस्तकें आती हैं-नंदन और चंपक! मुझे बचपन से लेकर आज प्रौढ़ावस्था तक इन किताबों का मोह नहीं छूटा। जब कभी भी मौका मिलता है तो मैं ये दोनों किताबें बड़े ध्यान से पढ़ती हूं। दोनों ही किताबों में बाकी जानवर की तरह एक गधे को भी कई बार सम्मानित स्थान दिया गया। कभी डमरू गथा, कभी भोलू गधा तो कभी डिंकी गधा। एक जगह तो लेखक ने हद ही कर दी जब डिंपी गधे के बाद अगला गधा चरित्र निकाल कर उसका नाम ‘‘ऐसी’’ गधा रख दिया। अब आपने गधे की अंग्रेजी की ऐसी हिंदी कहीं पढ़ी है क्या? नहीं न! तो जान लीजिए कि अगर मेरे जैसे हिंदी पढ़ने वाले ने गलती से अंग्रेजी पढ़ ली तो अंग्रेजी की फिर ऐसी की..........! हो ही जाती है। खैर जाने दीजिए।

हालांकि कई बार उसकी यानी गधे की हालत पशु समाज में ‘‘ऐसी’’ ही हो जाती है जैसी आप पार्टी में कुमार विश्वास की, भाजपा में आडवाणी जी की, कांग्रेस में मनमोहन सिंह जी की और मेरे जगत में मेरी। अब मेरे जगत के बारे में पाठकों आप रजत शर्मा जी की तरह अदालती सवाल जवाब या सुधीर चौधरी जी की तरह डेली न्यूज़ ऐनालिसिस मत करने लग जाना। एक साधारण सी इंसान हूं और कभी-कभी लिखकर अपनी बीती आप ही रो लेती हूं। नहीं तो क्या करूँ? आडवाणी जी तो चलो बुज़ुर्ग हो चले थे लेकिन कुमार विश्वास जैसा मुखर और संवेदनशील बंदा या फिर आदरणीय मनमोहन सिंह जी जैसा ज़हीन बंदा लोगों के हत्थे चढ़ गया। तो फिर मैं किस खेत की मूली, गोभी हूं। कहावत है कोई भी सब्जी रख लें कुछ फर्क पड़ता है क्या! नहीं न। लेकिन अगर आपने मुझपर मुकदमा चलाया तो मेरी गधा मजूरी पर असर पड़ेगा। गधा मजूरी पर असर पड़ा तो पेट कैसे भरेगा? अब इतना तो आप भी समझते हैं कि पेट पापी होता है और मैं पाप नहीं करना चाहती बस पापी पेट भरना है।

अब जाने दीजिए मैं कोई खानदानी चिराग तो हूं नहीं कि कुछ करूॅं न करूॅं हार भी जाऊँ तो भी लोग मुझे अध्यक्ष की कुर्सी पर जबरन बिठाना चाहेंगे, समोसे खिलायेंगे। न तो मोदी जी हूं कि कोई अमित शाह जैसा दोस्त मिल जाये और अपनी चाय की दुकान चल जाये। वो तो छोड़िये एक छोटा-मोटा गुंडा ही होती तो कम से कम राजनीतिक प्रश्रय मिल जाता। भई हम तो ठहरे खालिस किसान अम्मा की बिटिया जो कांधे पर हल और हाथ में कुदाल लिये सुबह साढ़े तीन बजे घर से निकलती थीं। कभी-कभी सोचती हूं कि अम्मा अधिक भाग्यशाली थीं जो हल कुदाल के सहारे हम सबको पढ़ा लिखा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। अब ये अम्मा का दोष थोड़े ही था जो हमारे देश की शिक्षा प्रणाली में लेखन को व्यवसाय के तौर पर नहीं देखा गया और न लेखकों को अधिक इज़्ज़त की निगाह से देखा जाता है। जीते जी तो महाकवि नीरज और सांई बाबा दोनों को ही फाकामस्ती करनी पड़ी तो फिर मैं किस खेत की......अब आगे पाठकगण क्या कहूं? न -न मैं महान लेखकों की तुलना गधे से क्या गधे के बाप से भी नहीं कर सकती। मेरे सभी जीवित, समकक्ष और आदरणीय लेखकजन मुझे क्षमा करें। लेकिन कहते हैं न कि बात निकली है तो फिर दूर तलक जायेगी ......और मैं उस वर्ग से आती हूं जिसे मजूर कहा जाता है, जो दूसरों के खेत में घर में आँफिस में मजूरी करके अपनी रोजी चलाता है। और ठेठ देसी मजूर को अभी भी काम करते देख सभ्य सुसंस्कृत लोग यही कहते हैं कि ‘‘गधा मजूरी कर रहे हो।’’ और कहना न होगा कि सारे गधों से मुझे घोर सहानुभूति है और वे मुझे अपने ही जैसे लगते हैं। ये अलग बात है कि इंसान होने के नाते वे मुझे खुद में सम्मिलित करें न करें। तब तक आप भी पढ़कर लोटपोट न सही फटा हुआ गुब्बारा या खेत में ढुलका पानी का लोटा हो जाइये। जल्द मिलेगा गिरगिटिया गधे का असली स्वरूप, तब तक जय मजदूर गधाराम जी की।



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