बकरियाँ और मीटिंग

बकरियाँ और मीटिंग

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हमारे दफ़्तर की बोर्ड की मीटिंग थी! सारे अफ़सर कुर्सी पर पदस्थ थे! मुद्दा था दफ़्तर को और बेहतर कैसे बनाया जाए और मीटिंग के "मिनट्स" कुछ इस प्रकार हैं..

चेयरमैन: देखिये! इस दफ़्तर को कोई इस मुक़ाम तक लाया है तो वो मैं हूँ और इस दफ़्तर को आगे भी मैं और मेरे तरीक़े ले जाएंगे!

सब-चेयरमैन (जो नेता का साला था): हमारे जीजा जी की फंडिंग की वजह से ये दफ़्तर चल रहा है जिसे मैं लेकर आया था, समझे आप!

डायरेक्टर (जो कि समाज के ऐसे वर्ग से था जो वहां राजनैतिक रूप से ताक़तवर था): आपके जीजा जी को हमारे लोगों ने जितवाया था वो भी मेरे कहने पे!

अफ़सर (जो कि एक धनाढ़्य का रिश्तेदार था): सर जी! इस दफ़्तर के २५% शेयर मेरे उन मामा जी के पास है तो मेरे कहने पर ही इस दफ़्तर की नीतियाँ बनेंगी!"

इस तरह मीटिंग मैं-मैं के स्वर से चालू हुई और इसी मैं-मैं के स्वर से समाप्त भी हुई परन्तु जिस मुद्दे पे ये मीटिंग बुलाई गयी थी वो अदालतों के मुक़दमों की तरह विचाराधीन ही रहा!

थका-हारा मैं दो दिन की छुट्टी लेकर अपने एक दोस्त के यहाँ उसके गाँव गया ताकि शहर की चिल्ल-पों से दूर रह सकूँ! ख़ैर ग्रामीण अंचल की हवाओं ने मुझे थोड़ा आराम दिया और मैं भी उसी परिवेश में रच-बस गया! एक दिन बकरियाँ ज़्यादा मिमियाने लगीं तो मित्र के कहने पर मैंने बकरियों को चारा दे दिया! वो बकरियाँ चारा खाने के पश्चात एक दूसरे से मैं-मैं कहकर कुछ बतियाने लगीं मानो बोल रहीं हो कि मेरी आवाज़ का आवेग ज़्यादा था जिसके कारण तुम सबको ये चारा प्राप्त हुआ है!

मैं जब हँसने लगा तो मित्र ने पूछा क्या हुआ तो मैंने जवाब दिया कुछ नहीं आज तुम्हारी बकरियों के स्वभाव का जब अकस्मात् निरीक्षण किया तो मुझे मेरे दफ़्तर की मीटिंग और मेरे बॉस लोग याद आ गए!

मेरा मित्र तो किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रखा है मेरी हँसी के राज़ को सुनकर, कहीं आप भी तो नहीं हो रखे हैं किंकर्त्तव्यविमूढ़?


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