यादों की संदूक
यादों की संदूक
आंगन के कोने में संदूक एक खाली सी है
जब भी देखो कुछ कहती है
शायद इशारा करती है वृद्ध पिता की कोठरी का
टूटी सी चारपाई, फटी सी एक रजाई है।
वर्षो की मेहनत से थका शरीर है
एक उम्मीद को तरसती धंसी आंखे है।
उस तरफ आशाओं का तमस है
बाहर आंगन में गूंजती किलकारी है
बाहों में न खिला सकते बच्चों को ,
कैसी यह लाचारी है।
कुछ वो कह ना पाते है,
जो हमे जीना सिखाते है।
एक कोने में वृद्धा लेटी हुई,
ओढ़े चादर फटी हुई।
जिस मां के लाड़ से पले असंख्य कान्हा
वो अब एक निवाले को तरसती है
जिसकी बाहें कभी न थकी,
वो अब है तन्हा ।
खोलो कभी कोने की उस संदूक को,
जिसमे तन्हाई का क्रंदन है
बेबसी है, लाचारी है।
तेरी शैतानियों की कई यादें है,
जहां कभी खुशी के आँसू रहते थे,
आज दुख और अभावों का सूनापन है।
याद कर जिसे तू अनदेखा कर रहा है,
वो ही तेरा अनमोल बचपन है।।