निखिल कुमार अंजान

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निखिल कुमार अंजान

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विकास की दौड़ में

विकास की दौड़ में

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वो पगडंडी और नदी तालाब

आस पास खूब खेत खलिहान

देखो ऐसा सुंदर था मेरा गाँव

हरी भरी थी धरा यहां पर

न था धुआँ धकड़ न प्रदुषण का वार

कुएं का ठंडा पानी और आम का बाग

चौपाल पर अक्सर हो जाती हँसी ठिठोली

सुख दुख की बातों संग मेल मिलाप

शुद्ध हवा एवं शुद्ध भोजन था

हरिया के घर से लेकर जुमन के घर तक

प्यार मोहब्बत भाईचारे का रंग चोखा था

अब वो पहले वाली बात नही है

गाँव मे गाँव की कमी खल रही है

शहर की चकाचौंध ने विकास की होड़ ने

लूट लिया है गाँव का अस्तित्व इस दौड़ ने

किसान खेती से खीझ रहा है

शहर गाँव को अपनी ओर खींच रहा है

न अब खेत रहे न तालाब रहे

न पगडंडी पर चलने के एहसास रहे

पेड़ों को काटा है कुओं को पाटा है

मजहब के रंग ने आपस मे सबको बांटा है

गाँव न गाँव रहा न शहर बन पाया है

सुख सुविधा से सम्पन्न होने की खातिर

ईंटों की दीवारें चुनवा कर खेत खलिहानों को मिटाकर

गाँव की जमीनों को बंजर कर डाला है

अब कैसे कह दूँ ये वही मेरा गाँव निराला है


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