ऊन का गोला
ऊन का गोला
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कभी सर्दियों की सुगबुगाहट,
बुनती थीं ऊन की गर्माहट,
अब वो ऊन के गोले और सलाइयाँ,
खामोश बैठे बुन रहे बस हिचकिचाहट..!
दो सीधे, दो उल्टे जब,फंदों के पाशे बुनते थे,
रंग बिरंगे ऊन से खिलकर,रिश्ते खूब निखरते थे..!
सर्द धूप दोपहरी,लिए ऊन की गठरी,
अम्मा फंदे भी बुनती थीं,गपशप साथ में सुनतीं थीं,
रंगीन ऊन के गोले, बेआवाज ही खुलते थे,
गर्माहट संग प्यार लिए, इंद्रधनुष सा फबते थे
अब बदल गयी वो सिलाई,अम्मा के हाथों की कढाई,
सर्दी है, पर चढ़ती नहीं अब स्वेटर पर, मखमल सी वो स्याही !