उड़ना था
उड़ना था
उड़ना था
और उड़े भी
खूब उड़े
जी भरकर उड़े
कुछ हासिल करना था
हासिल किये
जीतना था जीते।
जीवन दर जीवन ये सिलसिला चलता रहा।
दूर निकल आये घर से,
दूर बहुत दूर।
अपनी महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत
अपनी उड़ान
अपनी उपलब्धि
अपनी जीत से सम्मोहित
संतृप्त हो और आत्ममुग्ध घर लौटे।
लगा घर तो जर्जर हो चला है
रहने लायक नहीं बचा है।
घर के बाहर देर से खड़े देख रहे हैं
अपनी उड़ान का नजारा
उपलब्धियों की रंगशाला
और जीती हुयी जमीन।
यकीन मानो डर लगता है
घर मे प्रवेश से
क्या पता ये जर्जर छत कब धराशायी हो उठे,
सोच रहे हैं और सच भी है
चाँद पर तो घर बन सकता है
लेकिन ये जर्जर अपना घर जहां
से मनुष्यता की कराह आ रही है
गूंगे बहरे धमाचौकड़ी मचा रहे हैं
न कोई बोल रहा है
न कोई सुन रहा है
जैसे हम परिंदे हैं
चहचहा रहे हैं
कोई समझ नही पा रहा है हमारी बात,
महसूस नही कर पा रहा है
इस जर्जर हो चले
घर को रहने लायक बनाने की हमारी चाहत,
और हम अभी पश्चाताप में डूबे डूबे
सोच रहे घर को संवारने की बात
काश हम अपनी उड़ान में
अपने घर पर नजर रखते,
अपनी उपलब्धि में अपना घर सजाते।
कितने बौने हो गये लगते हैं हम
अपनी ही मनुष्यता की नजर में
सब कुछ हासिल कर लेने के बाद
आज और अभी।
