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Shakuntla Agarwal

Others

4.7  

Shakuntla Agarwal

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टेलीविज़न

टेलीविज़न

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मैं टेलीविज़न हूँ,

वो भी क्या दिन थे,

जब मेरी पूछ - परख थी

लोगों के सर का सरताज़ था मैं

छत पर बड़ा सा ऐंटिना,

अपने कैबिन में बैठा इतराता मैं !


किसी - किसी घर में मेरी आन,

लोगों की मैं था शान

चित्रहार का आना,

लोगों का उसमें खो जाना

साथ - साथ गुनगुनाना और इतराना !


फूल खिलते हैं गुलशन - गुलशन में,

तबस्सुम का मुस्कुराना,

दिलों में ख़लबली मचाना,

रामायण का आना,

लोगों का नतमस्तक हो जाना,

भावुक हो जाता था मैं,

देखकर की मुझे पूज रहें हैं लोग,


लगता है ज़माना बीता,

इन हसीन पलों को जिए,

अब टी आर पी के लिए

अश्लीलता परोसना,

मेरा शर्मसार हो जाना,

लोगों का हजूम बनाना,

मुझे देखने आना,


इतराकर मेरा ख़राब हो जाना,

ऐंटिना हिलाना, आवाज़ें लगाना,

ठीक है बस ठीक है,

कानों में इन आवाज़ों को घुले,

मुददत हो गई है !


लगता है मेरी क़िस्मत,

कहीं खो गयी है !

अब दीवारों पे लटक गया हूँ,

लगता है सूली पे चढ़ गया हूँ !

अब मुझे कोई नहीं देखता,

तरसता हूँ दर्शन के लिए,

कोई आये मुझे सहलाये,

मेरी कहानी सुने - सुनाये !


पहले जब मैं घर में आता था,

मौहल्ले भर में शोर मच जाता था

अब चुपचाप आता हूँ,

दीवार पे लटक जाता हूँ !

अब मेरी शान के डंके नहीं बजते,

अब मेरे लतीफ़े नहीं गढ़ते

पहले लोग मेरे लिए तरसते थे,

अब मैं उनको तरसता हूँ !


क्या मैं अब,

शानो - शौक़त का सामान रह गया हूँ ?

मालिक घर में आते हैं,

बिस्तर पर ढ़ेर हो जाते हैं !

मोबाइल या लैपटॉप में खो जाते हैं

शकुन अब मैं टाइम-पास हो गया हूँ,

अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हूँ !



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