स्वर्णिम संध्या
स्वर्णिम संध्या
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स्वर्णिम रेखा खचित विहाय,
जैसे जादू से मेरा मन मोहे।
यह कैसा है रूप बदलता,
पल पल नूतन रंग भरे।
नयन निरखते रह जाते,
अस्ताचल दृश्य पलट जाते।
प्रतिक्षण नवीन बनकर
रूप बदलकर चले आते ।
क्या अप्रतिम सौन्दर्य है यह,
लोचन अनिमिष रह जाते।
थके नयन निरख छवि को,
अपार अनिन्दित सुषमा को।
अंशुमाली ओझल होता जाता,
क्षितिज कोर में उतर जाता।
प्रति़पल नव शृंगार करे,
प्रकृति नटी रमणीय बने।।