सुन रे मन
सुन रे मन
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एहसासों के पंछी
अनुराग की मुंडेर पर
आखिर कब तक गायेंगे
कामनाओं के मंगल गान
इच्छाओं के बादलों में
दामिनी की तड़तड़ाहट
विश्वास की बही में फैले
कटे अंगूठों के जंगल में
समझौतों की सलीबों पर टंगे
संबंधों की सरगम
कब तलक बजेगी
वेदनाओं के राजमार्ग पर
सुन रे मन!
तू समझता क्यों नहीं!!
कभी पीले पत्ते-सी जिंदगी
कभी भूरे के सूखेपन की खड़खड़
लाल कौंपल मुस्करा देती है कहीं चुपके-से
कभी जामुनी शर्माता है
पलकों की ओट से,
कैसे कहूँ रे हरियल !
काश! तू भी मुस्करा दे एक बार
तो जी लूँ तेरी जीवनदायक छांव।
सुन रे मन!
आ मन से मिल।