श्रीमद्भागवत - १८५; राजा निमि के वंश का वर्णन
श्रीमद्भागवत - १८५; राजा निमि के वंश का वर्णन
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
निमि इक्ष्वाकु के पुत्र थे
ऋत्विज के रूप में वरण किया वशिष्ठ को
उन्होंने अपने यज्ञ के लिए।
वशिष्ठ कहें, ''राजा इंद्र जो
वरण कर चुके पहले से मुझे
मैं आपके पास आऊंगा
उनके यज्ञ को पूरा करके।
तब तक मेरी प्रतीक्षा करना ''
ये बात सुनकर राजा ने
कुछ न कहा, चुप वो रहे
वशिष्ठ इंद्र के पास चले गए।
विचारवान निमि ने सोचा
क्षणभंगुर है, जीवन ये
विलंब करना उचित न होगा
यज्ञ आरम्भ कर दिया उन्होंने।
वरण कर लिया दूसरे ऋत्विजों को
जब तक वशिष्ठ न लौट रहे
जब यज्ञ ख़त्म हुआ इंद्र का
लौटे वशिष्ठ तो देखा उन्होंने।
कि उनके शिष्य निमि ने
बात न मानकर उनकी
यज्ञ आरम्भ कर दिया है उन्होंने
शाप दिया उनकोऔर कहा कि।
'' निमि को अपनी विचारशीलता
और पाण्डियता पर बड़ा घमंड है
इसलिए शरीरपात हो जाये उसका
शाप उसे ये देता मैं।"
निमि की दृष्टि में वशिष्ठ का
शाप ये धर्म के अनुकूल नहीं था
इसलिए उन्होंने वशिष्ठ को
शाप देते हुए ये कहा।
'' आपने लोभवश अपने धर्म का
आदर नहीं किया इसलिए
आपका शरीर भी गिर जाये
शाप आपको मेरा लगे ये ''।
आत्मविद्या में निपुण निमि थे
शरीर त्याग दिया कहकर ये
परीक्षित, हमारे प्रपितामह वशिष्ठ ने भी
शरीर त्याग दिया था उस समय।
मित्रवरुन द्वारा उर्वशी के गर्भ से
वशिष्ठ ने फिर जन्म ग्रहण किया
यज्ञ के मुनियों ने निमि के शरीर को
सुगन्धित वस्तुओं में रख दिया।
सत्रयाग की समाप्ति हुई जब
और देवता लोग आये वहां
तब उन मुनियों ने उनसे
प्रार्थना कर ये सब कहा।
''महानुभावों, आप लोग समर्थ हैं
यदि आप प्रसन्न हैं तो
किसी तरह निमि के इस शरीर को
फिर से पुनर्जीवित करो ''।
जब देवता बोले, '' ऐसा ही हो ''
उस समय निमि ने कहा ये
''मुझे देह का बंधन नहीं चाहिए
ये शरीर एक दिन अवश्य ही छूटे।
दुख, शोक और भय के मूल
शरीर को धारण नहीं करना चाहता ''
तब देवता कहें, '' नेत्रों में निवास करें
बिना शरीर, अपनी इच्छा से राजा।
वहां रहकर सूक्ष्म शरीर से
भगवान का चिंतन करते रहे
पलक उठने और गिरने से
अस्तित्व का पता चलता रहेगा उनके''।
इसके बाद ऋषियों ने सोचा
अगर राज्य में राजा न होंगे
फैल जाएगी अराजकता राज्य में
शरीर का मंथन किया निमि के।
मंथन से उत्पन्न हुआ था
एक कुमार जनक नाम का
ये नाम पड़ा था उसका
क्योंकि उसने जन्म लिया था।
विदेह से उत्पन्न हुआ वो
इसलिए वैदेह भी कहते हैं उसे
और मिथिल भी नाम है उसका
क्योंकि उत्पन्न हुआ मंथन से।
उसी ने मिथिलापुरी बसाई
उसके फिर पुत्र उदावसु हुआ।
उसके नन्दिवर्धन, उसके सुकेतु
उसका देवराज, उसका बृहद्रथ हुआ।
बृद्धरथ का महावीर्य हुआ
महावीर्य के सुधृति हुआ
सुधृति के धृष्टकेतु और
धृष्टकेतु का पुत्र हर्यश्व था।
हर्यश्व के मरू नाम का पुत्र
मरू से प्रतीपक हुआ था
प्रतीपक से कृतिरथ हुआ
देवमीढ़ पुत्र कृतिरथ का।
देवमीढ़ से विश्रुत और
महाधृति हुआ विश्रुत से
महाधृति से कृतिरात और
महारोमा हुआ कृतिरात से।
महारोमा का पुत्र स्वर्णरोमा
स्वर्णरोमा के ह्रस्वरोमा थे
इसी ह्रस्वरोमा के पुत्र
महाराज सीरध्वज थे।
वे जब धरती जोत रहे थे
यज्ञ के लिए अपने सीर (हल) से
सीता जी की उत्पत्ति हुई
उसके अग्रभाग (फल) से।
इसीसे नाम सीरध्वज पड़ा उनका
सीरध्वज के कुशध्वज हुए
कुशध्वज के दो पुत्र
कृतध्वज और मितध्वज हुए।
कृतध्वज के केशिध्वज और
मितध्वज के खाण्डिक्य हुए
खाण्डिक्य कर्मकांड का मर्मज्ञ
केशिध्वज प्रवीण आत्मविद्या में।
भयभीत होकर केशिध्वज से
खाण्डिक्य भाग गया था
केशिध्वज का पुत्र भानुमान हुआ
भानुमान का शतद्युम्न था।
शतद्युम्न के शुचि, शुचि के सनद्वाज
सनद्वाज के ऊधर्वकेतु हुए
ऊधर्वकेतु से अज, अज से पुरोजित
पुरोजित से अरिष्टनेमि हुए।
अरिष्टनेमि से ऋतायु और
सुपाश्रवण हुए ऋतायु से
सुपाश्र्वन से चित्ररथ और
मिथिलापति क्षेमधि हुए चित्ररथ से।
क्षेमधि से समरथ, समरथ से सत्यरथ
सत्यरथ से उपगुरु का जन्म हुआ
उपगुरु से उपगुप्त हुआ और
वो अग्नि का अंश था।
उपगुप्त से वसवनन्त
और वसवनन्त से युयुध हुए
युयुध से सुभाषण , सुभाषण से श्रुत
श्रुत के जय, जय के विजय थे।
विजय के ऋत नामक पुत्र हुआ
ऋत को शुनक ,उसका वीतहव्य हुआ
वीतहव्य का धृति, धृति का बहुलाशव
कृति बहुलाशव का, उसका महावशी।
परीक्षित, ये मिथिल के वंश में
उत्पन्न नरपति मैथिल कहलाते
ज्ञानसम्पन्न, ग्रहस्थ में रहते हुए भी
सुख दुःख के द्वंदों से मुक्त थे।