प्रिये की हाला - २
प्रिये की हाला - २
कितने साथी कितने संगी,
कितने राही मदमस्त हुए,
जीने की इस अभिलाषा में,
कितने पीकर फिर तृप्त हुए।
कुछ टूट गए, कुछ छूट गए,
राहों से मुख फिर मोड़ गए,
तुझको पाने की आशा में,
जीवन की महफिल लूट गए।
तू सरिता सी कल कल बहती है,
डूबन की आशा रहती है,
तेरी धारा अविरल होकर,
मेरे सिंधु में खोती है।
आ मुझको एक जमाना दे,
खुद में खोने का बहाना दे,
तू मृगनयनी जो विचरती है,
हाथों से रेत फिसलती है।
आ कर तू अंगीकार मुझे,
थोड़ा तो ले स्वीकार मुझे,
तेरे हाथों की वो हाला,
आ मुझे पिला दे सुरबाला।
बाहों के तेरे घेरों में,
जीवन के मस्त सवेरों में,
आ कर दे मेरी साँझ प्रिये !,
इतना तो कर उपकार प्रिये!
...क्रमशः