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नदी की आत्मकथा

नदी की आत्मकथा

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मैं हूँ सतत प्रवाहिनी सरिता

आदिकाल से संस्कृति की

संवाहक।

मगर कभी-कभी रौद्र रूप

धर बन जाती हूँ संहारक।।


रूप धारण कर नहरों का

करती कृषिक्षेत्र को सिंचित।

मेरी कल कल ध्वनि से

निर्जन भी हो उठता गूंजित।।


छोटे-बड़े कई जलचरों का

उत्तम आवास हूँ मैं।

गंगा गोदावरी ब्रह्मपुत्र

व्यास के रूप में खास हूँ मैं।।


कहता जननी करता पूजा

लेकिन नर ने मुझ को दूषित

कर डाला

हुई संकुचित रखा तृषित

फिर भी न उसने होश संभाला।।


कर लिया मेरे पथ पर कब्ज़ा

और कुपित होने का दोष मुझे

देता है।

ज्ञानवान होकर भी सृष्टि को

विनाशपथ पर अग्रसर करता है।।



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