मंत्र
मंत्र
1 min
174
कुछ लिखना चाहती थी
तुम्हारा ही अंश हूं
एक नई कविता
माँग रही थी खुद को
चेतना के अंधकार में
ढूँढते हुए पहुंच गई थी
एक अनजान बस्ती में
जहाँ फैली हुई थी
मुट्ठी भर निःशब्धता
स्वर्णमृग जैसे सारे शब्द
भाग रहे थे संज्ञा शून्य होकर
मैं थी उनके पीछे,
क्षत-विक्षत स्वीकृति को लेकर
कुछ मधुर ध्वनि की खोज
बसन्त दूत की शुक्ष्म गुंजन
के साथ,
पुलक नई रचना की
पकड़कर सारे शब्दों को
ले आई तुम्हारे पास
बदल गए वे सारे शब्द
मंत्र में
शायद तुम्हारे छूने के बाद।