मंज़िलें अभी और भी हैं
मंज़िलें अभी और भी हैं
बहुत मुश्किलों से जन्म दिया बेटी को ग़रीब ने।
उसको कोसा, दूर के रिश्तेदार या हर क़रीब ने।
हाय, क्या पाप हुआ था, मनहूसियत छा गई है।
मगर ग़रीब ने सोचा, स्वयं लक्ष्मी घर आ गई है।
ग़रीब ने नाज़ों से बेटी को पालकर बड़ा किया।
उसे पढ़ा लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा किया।
ग़रीब ने बेटी को क़ाबिल बनाकर ही दम लिया।
समाज ने उसको ताने उलहाने देना कम किया।
अगर ऐसे ही हर परिवार बेटियों को सम्मान देगा।
तभी समाज भी बेटियों को हर क्षेत्र में स्थान देगा।
समाज ने बेटी को ऊंचा दर्जा देना शुरू कर दिया।
मंज़िलें अभी और भी हैं, सफ़र पर क़दम धर लिया।
अब बेटियाँ बेटों के कंधों से कंधा मिलाकर चल रहीं।
उनकी सुबहें उम्मीद भरी हैं, सुकून से शामें ढल रहीं।
