मैं कवि हूँ कविताएं लिखता हूँ
मैं कवि हूँ कविताएं लिखता हूँ
बिन लाग लपेट, मुखौटों के मैं,
अंतर्मन पे लगी सब चोटों को मैं,
बस बुन अपने ही शब्द जाल से,
कुछ हंस के और कुछ मलाल से,
करुणा, तृष्णा, ईर्ष्या या ममता,
फिर भेद भाव हो या हो समता,
कुछ भी न इन शब्दों ने छुपाया है,
हूँ जैसा भीतर वैसा ही बस दिखता हूँ,
हाँ हूँ मैं कवि, मैं कविताएं लिखता हूँ।
अक्षर ही रहे हैं हमराही ,
और शब्द बने हैं सहपाठी,
जीवन के अनुभव ताना बाना,
तन्हाई बनी कविता की काठी,
क्षण क्षण जीवन के बस सीमित,
अपनी रचनाओं मैं बस रिसता हूँ
जब हारे थे जीवन द्वंद्व सभी,
इस विधा मैं जीवित दिखता हूँ,
हाँ हूँ मैं कवि, मैं कविताएं लिखता हूँ।
मुझको कितने हैं नाम दिए,
है मुझ पे फिदा ये जमाना हैं,
परवाना हूँ गर महफ़िल है ,
रुसवाई में नाम दीवाना है,
जाता पतझड़ का हो मौसम,
या मनभावन हरियाला सावन,
ऋतु कोई, अवसर हो कोई,
मैं सब ही पर तो लिखता हूँ,
हाँ हूँ मैं कवि, मैं कविताएं लिखता हूँ।
वो कहते थे अनमोल हूं मैं,
शब्दों का खिलाड़ी हूँ मैं बड़ा,
हर युग में दर्पण हूँ समाज का,
मुझमें है युगों का इतिहास खड़ा,
जो लेखनी कभी थी झुकी नहीं,
थी धारा प्रवाह पर रुकी नहीं,
अपने लेखन को व्यापार बना कर,
मैं अब पण पण पर बिकता हूँ,
हाँ हूँ मैं कवि, मैं कविताएं लिखता हूँ।।