माँ मुझे डिस्टर्ब मत करो
माँ मुझे डिस्टर्ब मत करो
मेरी माँ स्कूल में अध्यापिका थी
अनेकों बच्चों के साथ-साथ,
मैं भी माँ से पढ़ी।
बचपन में माँ मुझे पढ़ाती थी
मेरे साथ पढ़-पढ़कर,
पाठ मुझे याद कराती थी।
पक्षियों की आवाजें निकाल-निकाल कर
मुझे कोयल और कव्वे में फर्क समझाती थी।
विद्या दान-महादान के कारवाँ में
माँ ने ना जाने कितने
शिक्षा के दीप जलाए थे।
मैं भी उन्हीं के द्वारा प्रज्जवलित किया दीप थी
सुच्चे मोती के अस्तित्व वाला सीप थी।
हम बच्चे पढ़-लिख कर बड़े हो गए
उच्च पद पर आसीन,
अपने पैरों पर खड़े हो गए।
अब माँ अक्सर फोन पर बतियाती है
घंटों पाठ सीख का पढ़ाती है
माँ, लगता है, अब हमें खिजाती है
अक्सर डिस्टर्ब मत करो, का तगमा पाती है।
माँ आप इतना डिस्टर्ब मत किया करो
अब मैं इतनी भी छोटी बच्ची नहीं रही
कोयल और कव्वे में फर्क ना कर सकूँ
इतनी भी कच्ची नहीं रही।
लगता है बेटी, अब माँ से बड़ी हो गई है
अपने पैरों पर खड़ी हो गई है
जब-तब गुस्से में बांग दे देती है
डिस्टर्ब मत करो माँ, का बोर्ड टाँग देती है।