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संजय असवाल

Others

4.7  

संजय असवाल

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मां अब अखरने लगी है..!

मां अब अखरने लगी है..!

2 mins
431


पहले मां सहती है 

असीमित दर्द 

अपने नन्हों को जनने में।

फिर मां खो देती है

अपना सुख चैन 

उन्हें एक एक घड़ी पालने में।

मां अक्सर दौड़ती है

भागती है पीछे उनके

भूल जाती है भूख अपनी

दो कोर उन्हें खिलाने में।

मां लंबी रातों को जगती है 

उन्हें मीठी नींद सुलाने में।

मां खुटती है 

रोज मिटती है 

उन्हें योग्य बनाने में।

मां डांटती डपटती 

कठोर भी हो जाती है

उन्हें सही राह दिखलाने में।

मां फिर पुचकारती है

अबोध सी हो जाती है 

उन्हें सीने से लगाने में।

मां रोज मरती है 

धरती है नित्य नए रूप 

उन्हें संवारने में 

एक अच्छा इंसान बनाने में।

मां बस मां होती है

खो देती है जिंदगी अपनी

अपनों की जिंदगी तराशने में।

पर अब मां...!

बुड्ढी हो गई है

ना भागती है

ना दौड़ पाती है

बस एक कोने पर पड़ी रहती है,

आंखें भी उसकी साथ नहीं देती 

इसलिए गिरती पड़ती रहती है।

मां की हर बात अपनों को

अब चुभने लगी है.......!

उसका खांसना, बड़बड़ाना

बार बार बीमार हो

बिस्तर पर लेट जाना.........!

मां अपनों को ही अखरने लगी है 

मां अब बोझ सी लगने लगी है।

उसका त्याग 

उसका बलिदान

अब एक पुरानी बात हो गई......!

मां अब अपनों के लिए

एक भूली बिसरी कहानी हो गई।

मां...............!!!!

अब पहले सी नहीं लगती है

थकी थकी बीमार सी 

अपनों के आंखों में

तिरस्कृत सी लगती है।

उसका प्यार 

उसकी ममता का

अब कोई मोल नहीं........!!!

वो व्यर्थ है बोझ है

अपनों की नजरों में 

उसके लिए कोई बोल नहीं।

अब अपने ही उससे

कतराने लगे हैं 

जो मां के बांहों के लिए 

तरसते थे कभी

दूर उससे जाने लगे हैं।

दुःख दर्द मां का बांटना

अब दूर की कौड़ी हो गई है,

अपनों के लिए मां

वो पड़ी पड़ी 

एक जिंदा लाश हो गई है।



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