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Jyoti Sagar Sana

Others

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Jyoti Sagar Sana

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कोठरी

कोठरी

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बैठती हूँ एक कोठरी में लेकर कागज़ कलम,

लिखती हूँ, मिटाती हूँ, कुछ सच, कुछ वहम।

देख रही हूँ इस कोठरी के बाहर भी एक कोठरी है,

जिसमें घड़ी नही मैं चलती हूँ, 

सुबह पांच बजे से रात बारह बजे तक,

छत से लेकर उस अंदर वाली कोठरी तक,

इसे घर कहती हूँ,इसमें चक्कर काटती रहती हूँ।

अरे! इसके बाहर भी एक कोठरी है,

जहाँ मैं हाड़ मांस धारिणी हूँ,

स्त्री हूँ, गृहिणी हूँ, स्वामिनी हूँ, चारिणी हूँ।

कोठरी जितनी बड़ी होती जाती है,

भीड़ बढ़ती चली जाती है,

डर रही हूँ, काँप रही हूँ,पर,

हारती नहीं, तीनों कोठरियों का रास्ता नाप रही हूँ।

सबसे प्यारी सबसे भीतर की कोठरी है,

वहाँ अपना मन खोल ताक पर रख देती हूँ,

बिना सोचे समझे सब लिख लेती हूँ।


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