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Disha Singh

Abstract

3  

Disha Singh

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ख़ामोशी की जुबां

ख़ामोशी की जुबां

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जब लहरें करती है शोर 

उस सुनसान सी टापू में 

गूंजते है उनके बोल 

दर्द की तन्हाई में 

कहना चाहती है हमसे 

अपनी दास्तान

मगर टकरा जाती है उन पत्थरों से


अपने ही शोर में खो गयी है

बेबस और बेसहारा हो गयी है,

चारो तरफ सिर्फ जल की धारा है

किनारो में अपनी पहचान ढूंढ रही है


डूबते हुए सूरज की लालिमा को

देख कर मुस्कुरा रही है 

दोनों अपनी जगह शांत है 

हल्के आसमान पर

सितारों की बारात है 


समंदर की गहराई में 

छुपे है कितने राज 

लहरों की चादर में 

सिमट गये है

वह सरे ख़्वाब

ढूंढना चाहे भी तो खो जाते है 

हाथों से रेत फिसल जाते है 


अंधेरो में सो जाती है 

सवेरा होते ही उठ जाती है 


अपनी चमक से दूसरों को खुश करती है 

लहरें न जाने क्या छुपाती है

बेज़ुबान होते हुए भी 

सब कुछ अपने शोर में कह जाती है।


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