ज़हीन दौर
ज़हीन दौर
लफ्जों और लहजों में छिपा होता है, मुलाकातों का सिलसिला
पहचान कर ,संभलकर रिश्तों के सफर पर निकला करो,
जज़्बातों की बारिश से महरूम है ,दिल की जमीं आजकल,
यूं ही एतबार के गुल्म को , हर जमीं पर लगाया ना करो।
चंद लम्हों के आते जाते, रिश्तों की फेहरिस्त में,
अपने दिल का हाल, बेपरवाही से ना सुनाया करो,
चेहरे के ऊपर नकाब चढ़ाकर, पूछते है हाले दिल सभी,
हमदर्द समझकर अपना दर्द, सबको ना बताया करो।
रिश्तों को गैर जरूरी समझते है, जज़बातों का एहतराम नहीं
मसरूफ है बहुत इंसा, खुद के तन्हा सफर में,
परवाह नहीं किसी की आमद और रुखसती की ।
खुद में खोये है इतने कि, खुदगर्ज हो गये है,
पहली मुलाकात का तकल्लुफ, आखरी मुलाकात की वो कसक,
खूबसूरत जज़्बातों के, ज़हीन दौर को भूल गये है।